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में हमने कुछ परिवर्तन किया है जिसका यहाँ पर खुलासा करना आवश्यक है। (१) सिद्धार्थ व्यन्तर
आवश्यकटीका और संस्कृत-प्राकृत सभी चरित्र ग्रन्थों में सिद्धार्थ व्यन्तर और गोशालक मंखलि पुत्र का नामोल्लेख बार-बार आता है परन्तु हमने अपने इस ग्रन्थ में सिद्धार्थ व्यन्तर का उल्लेख नहीं किया । क्योंकि अन्य सूत्रों में और आवश्यकनियुक्तिभाष्य में भी सिद्धार्थ का नाम नहीं है । चूणिटीकाकारों ने सिद्धार्थ वाला प्रसंग भगवान् के जीवन के साथ किस उद्देश से जोड़ा होगा, इसका निश्चय करना कठिन है । वास्तव में भगवान् के लोकोत्तर जीवन के साथ सिद्धार्थ वाला प्रसंग एक अन्तर्गडु की तरह निरर्थक सा प्रतीत होता है । यद्यपि इन्द्र ने भगवान् के घोर उपसर्गों को दूर करने के लिये सिद्धार्थ को उनके साथ रहने की भलावन की थी पर हम देखते हैं कि सिद्धार्थ कहीं भी उपसर्ग दूर करने में कृतकार्य नहीं हुआ । उपसर्ग हटाना तो दूर रहा, कभी-कभी तो वह उल्टा भगवान् के लिये उपाधिजनक हो गया है । शूलपाणि रातभर भगवान् को सताता है पर सिद्धार्थ का कहीं पता नहीं है और जब वह थक कर भगवान् का गुणगान करता है तब सिद्धार्थ आकर उसे इन्द्र के नाम से धमकाता है । मोराक संनिवेश के बाहर भगवान् ध्यानारूढ़ होते हैं तब सिद्धार्थ उनके मुख से भविष्य वाणियाँ करके वहाँ लोगों का जमघट लगाता है ! और अछन्दक के छिद्र खोलकर भगवान् के लिये असमाधिजनक परिस्थिति उत्पन्न करता है । बारह वर्ष तक समीप रह कर भी दो चार बार भोजन विषयक भविष्यवाणियाँ करके गोशालक को नियतिवाद की तरफ झुकाने के अतिरिक्त सिद्धार्थ ने महावीर की कुछ भी सेवा सहायता नहीं की । तब क्या आवश्यकता है कि एक भूत की तरह सिद्धार्थ को भगवान् के पीछे लगाकर उनके धीर वीर जीवन का महत्त्व घटाया जाय ? कदाचित् यह कहा जा सकता है कि छद्मस्थावस्था में भगवान् मौन रहते थे, इसलिये गोशालक के साथ वार्तालाप करने वाला कोई दूसरा ही होना चाहिये । इसका भी हमारे पास उत्तर है । भगवान् छद्मस्थावस्था में मौन रहते थे, यह सत्य है, तथापि ऐकान्तिक नहीं । छद्मस्थावस्था में भी
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