Book Title: Shatrunjay Bhakti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Abhinav Shrut Prakashan

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Page 23
________________ पाताले जस मूल छे, उज्वल गिरि नु सार, त्रिकरण योगे वंदतां, अल्प होय संसार....सिद्धा....२० तन मन धन सुत वल्लभा, स्वर्गादि सुखभोग, जे वंछे ते संपजे, शिवरमणी संयोग, विमलाचल परमेष्ठिनु, ध्यान धरे षट्मास तेज अपूरव विस्तरे, पूरे सघली आश, त्रीजे भवे सिद्धिलहे, ए पण प्रायिक वाच उत्कृष्टा परिणामथो, अंतरमुहुरत साच, सर्व कामदायक नमो, नामे करी ओलखाण श्री शुभवीर विजय प्रभु, नमतां क्रोड कल्याण....सिद्धा....२१ ___ श्री शत्रुजय यात्रा विधी यहां समाप्त होती है। तलेटोए बोलने का स्तवन गिरिवरियानी टोचे जगगुरु जई वस्या ललचावो लाखोने, लेखे न कोइ रे आवो तलाटीने तलिये टलवलु एकलो सेवक पर जरा महेर करीने देखो रे गिरि...१.... काम दामने धाम नथी हु मांगतो मांगु मांगण थइने चरण हजुरजो काया दुर्बल छे ते प्रभुजी जाणजो आप पधारो दीलडे दीलडां पूरजो गिरि....२.... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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