Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 4
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ आद्य निवेदन श्रावकाचार-संग्रहके इस चतुर्थ भागमें तीन खण्ड हैं। प्रथम खण्डमें सभी श्रावकाचारोंके आधार पर प्रस्तावना दी गई है। द्वितीय खण्डमें सानुवाद कुन्दकुन्द श्रावकाचार है और तृतीय खण्डमें परिशिष्ट है। इस विभाजनका कारण यह है कि सभी श्रावकाचारोंके मुद्रणके पश्चात् प्रस्तावनाका मुद्रण कार्य प्रारम्भ हुआ, अतः उसके पृष्ठोंकी संख्या पृथक् रखी गयी है। परिशिष्ट-गत श्लोकानक्रमणिका आदिकी पृष्ठ-संख्या पृथक् देनेके दो कारण रहे हैं-प्रथम तो यह कि श्लोकोंकी अनक्रमणिकाका सम्बन्ध श्रावकाचार-संग्रहके प्रथम भागसे लगाकर चारों भागोंके श्लोकोंसे है। दूसरा कारण यह रहा है कि कुन्दकुन्दश्रावकाचारके मुद्रणके समय यह विचार हुआ कि यतः श्लोकानुक्रमणिका बहुत बड़ी है उसके मुद्रणमें अधिक विलम्ब न हो, अतः उसके साथ ही इसक भी मुद्रण प्रारम्भ करना पड़ा, जिससे उसकी पृष्ठ-संख्याको पृथक् रखना पड़ा। फिर भी आशातीत विलम्ब हो ही गया। श्रावकाचार-संग्रहका पंचम भाग-जिसमें कि हिन्दी पद्यमय श्रीपदमकविका श्रावकाचार, श्री किशनसिंहजीका क्रियाकोष और पं० दौलतरामजीका क्रियाकोष संकलित है-गत वर्ष हो प्रकाशित हो गया था। इस चतुर्थ भागके मुद्रणका कार्य भी पंचम भागके मुद्रणके साथ ही प्रारम्भ किया गया था। पर इस चतुर्थ भागमें संकलित कुन्दकुन्दश्रावकाचारके ज्योतिष, वैद्यक, सामद्रिक एवं सर्प-विष-विषयक प्रकरण मेरे लिए सर्वथा अपरिचित थे, उसके लिए लगातार छह मास तक बनारसके तत्तद्विषयके विशेषज्ञोंसे सम्बन्ध स्थापित कर उनके अनुवाद करनेमें आशातीत समय लगा। फिर भी कुछ स्थल संदिग्ध रह गये हैं, जिनका शब्दार्थ-मात्र करके रह जाना पड़ा है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी रहा है कि कुन्दकुन्दश्रावकाचारको जो प्रति मिली, वह बहुत ही अशुद्ध थी और प्रयत्न करनेपर भी अन्य शास्त्र-भण्डारोंसे दूसरी प्रति प्राप्त नहीं हो सकी। शास्त्र-भण्डारोंके सम्बन्धमें नहीं चाहते हुए भी दुःख-पूर्वक यह लिखनेको बाध्य होना पड़ रहा है कि इन भण्डारोंके स्वामी पत्रोंके उत्तरका भी कष्ट नहीं उठाते हैं। राजस्थानके शास्त्रभण्डारोंकी बड़ी-बड़ी ग्रन्थ-सूचियाँ अनेक भागोमें प्रकाशित हो गयी है, परन्तु जब किसी शास्त्रको उन भण्डारोंसे मंगाया जाता है, तो भेजना तो दूर रहा, पत्रका उत्तर तक भी नहीं देते हैं । अतः ग्रन्थ-सम्पादकको विवश होकर एक ही प्रतिके आधार पर ग्रन्थका सम्पादन और अनुवाद करना पड़ता है और इस कारण अशुद्धियां रहनेकी संभावना बनी रहती है । मेरा राजस्थानके शास्त्रभण्डारोंके स्वामियोंसे नम्र-निवेदन है कि वे अपने मोहको छोड़कर जेयपुरके महावीर-भवनमें सबको एकत्र कर रख देवें और महावीर-भवनके अधिकारी एक विद्वान्की नियुक्ति कर देवेंजो कि उनकी संभाल करते हुए समागत-पत्रोंका उत्तर एवं ग्रन्थ-प्रति भेजनेका कार्य करता रहे । दि० २५।१२।१९७९ विनम्र निवेदक वाराणसी हीरालाल शास्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 598