Book Title: Sarvsiddhantpraveshak Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur View full book textPage 6
________________ दर्शन शास्त्र जो आत्मा के साक्षात्कार का साधन रहा है वह ऐकान्तिक दृष्टिकोण या आग्रह बुद्धि के कारण द्वेष को बढ़ाने का साधन बन गया है। दूसरों के दृष्टिकोण में रहे हुए सत्यांश को स्वीकार करने की विवेकबुद्धि यदि मनुष्य में आ जाए तो विवाद का कोई स्थान ही न रहे। एकांत का आग्रह छोड़कर अनेकान्तदृष्टि अपनाये बिना विवेक बुद्धि भी विकसित नहीं हो सकती है। अनेकांत दो शब्दों से मिलकर बना है - अनेक + अन्त। यहाँ अन्त शब्द का अर्थ है 'धर्म' अर्थात वस्तु में अनेक धर्म हैं। वस्तु में एक ही धर्म (गुण) का आग्रह रखना मिथ्यात्त्व है। यदि कोई यह प्रश्न करे कि, एक ही वस्तु में परस्पर विरूद्ध अनेक धर्मों का समावेश किस प्रकार हो सकता है ? इसके उत्तर में बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति का यह वाक्य प्रासंगिक होगा कि - "यदीदं स्वयमर्थानां रोचते के वयम् ।।" (प्रमाणवार्तिक 2/210) यदि पदार्थ को ही अनेक धर्मात्मक होना पसंद है, तो इसमें हम क्या कर सकते हैं। एक ही वस्तु में विरोधी गण रहे हए है, जैसे एक व्यक्ति किसी की अपेक्षा से पुत्र है तो किसी की अपेक्षा से पिता भी है। वस्तु उत्पाद-व्यय-धौव्यता के गुणों से युक्त होने से भी नित्यानित्य है। जैसे मिट्टी पिंड के रूप से नाश होकर घड़े के रूप में उत्पन्न होती है, तथापि उसकी मिट्टी रूपता तो कायम ही रहती है। इस प्रकार अपेक्षा भेद से एक ही वस्तु में उत्त्पत्ति, विनाश एवं स्थिरता घटित होती है। इसको स्वीकार करने में बाधा जैसा क्या है ? जो यह बात स्वीकार करली जाये, तो वस्तु को सर्वथा अविनाशी मानने वाले वेदान्ती एवं सर्वथा विनाशी या क्षणिक मानने वाले बौद्धों का झगड़ा अपने आप समाप्त हो सकता है। इस प्रकार वस्तु भाव-अभाव, नित्य-अनित्य, सत्त्व-असत्त्व, सामान्यात्मकत्व- विशेषात्मकत्व से युक्त है जो इस दृष्टि से वस्तु का विचार किया जाये तो दर्शनशास्त्रों के अनेक विवाद अपने आप ही समाप्त हो सकते है। इस अनेकान्तदृष्टि से सारे मिथ्याभिनिवेशो का शमन हो जाता है। यही अनेकान्त का सिद्धान्त जैन दर्शन का आधार है । संसार दुख से भरा हुआ है, दुख का कारण, दुख से छुटकारा पाने का उपाय, मोक्ष और मोक्ष के उपायभूत मोक्षमार्ग का निश्चित ज्ञान नितांत आवश्यक है। साधक को चाहिये कि, जगत में चल रहे मुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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