Book Title: Sarvsiddhantpraveshak
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 42
________________ सामान्य - दो प्रकार के हैं पर और अपर। द्रव्य, गुण पर्याय में जो सत्व है, वह सत्ता ही पर सामान्य है। सत् अनुवृत्ति (भिन्न-भिन्न वस्तुओं की एकाकार प्रतीति) का हेतु होने से यह सामान्य ही है। अतः कहा गया है कि, द्रव्य गुण पर्याय में जो व्यापक सत् है, वह सत्-सत्ता 'अपर-सामान्य' है, उसी प्रकार द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व अपर सामान्य हैं, जैसे द्रव्यों में द्रव्यत्व, गुणो में गुणत्व एवं कर्मों में कर्मत्व अपर सामान्य इति सामान्य पदार्थ विशेष - नित्य द्रव्यों में रहने वाला अंतिम धर्म 'विशेष' कहलाता है। नित्य द्रव्य चार प्रकार के हैं। परमाणु, मुक्तात्मा और मुक्तमन -ये अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा व्यक्त नहीं होने कारण विशेष हैं। इति विशेष पदार्थ समवाय - अयुत सिद्धान्त के आन्तरिक एवं आधारभूत संबंध (कार्यकारण संबंध) को समवाय कहते हैं। इति समवाय पदार्थ अब वैशेषिक सिद्धान्त में प्रमाण के विषय में जो कहा गया है, उसे बताते हैं - लैंगिक अर्थात् अनुमान और प्रत्यक्ष- ये दो प्रमाण है, शेष सभी प्रमाण उसके अन्तर्गत आ जाते हैं। लैंगिक (अनुमान) प्रमाण के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं - यह इसका कार्य है, यह इसका कारण है - ऐसे एकार्थक, समवायी या विरोधी संबंध का ज्ञान कराने वाला लैंगिक प्रमाण अर्थात् अनुमान प्रमाण है। यह इसका कार्य है जैसे नदी का पूर वृष्टि का कार्य है। यह इसका कारण है, जैसे मेघोन्नति के कारण वृष्टि हुई। संबंध दो प्रकार के होते हैं, - संयोग संबंध और समवाय संबंध। संयोग संबंध - जैसे धुंए और अग्नि का। समवाय संबंध - जैसे वस्त्र का सूत से, अथवा गाय का सींग से। एकार्थ समवायी भी दो प्रकार के होते हैं - कार्य का कार्य से और कारण का कारण से। कार्य का कार्य से जैसे स्पर्श का रूप से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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