Book Title: Sarvsiddhantpraveshak
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 43
________________ २९ कारण का कारण से जैसे पाँव का हाथ से। विरोधी संबंध चार प्रकार के हैं - 1. होने वाला कार्य नहीं हुआ, जैसे वर्षा नहीं हुई, क्योंकि हवा के संयोग से बादल बिखर गये। 2. नहीं होने वाला कार्य हुआ, जैसे वर्षा हुई, हवा और बादल के संयोग से। 3. न होने का कार्य नहीं हुआ। जैसे घट और अग्नि का संयोग न होने से (घट में) श्यामता प्रकट नहीं हुई। 4. होने का कार्य हुआ - जैसे सेतु के भंग होने से हलचल होना। उसी प्रकार दूसरे अन्य भी लिंगों के द्वारा भी अनुमान किया जाता है। जैसे- नक्षत्रों के उदय से, जल प्रसाद आदि का ज्ञान, जैसे चन्द्र का उदय होने पर समुद्र की वृद्धि एवं कुमुदिनी का विकास आदि। ये लिंग साध्य के ज्ञान के लिए होते है, नियम के प्रतिपादन के लिए नहीं। प्रत्यक्ष का लक्षण क्या है ? तो कहते हैं कि, आत्मा, इन्द्रिय, मन एवं अर्थ के सन्निकर्ष से जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष है। इसकी व्याख्या है कि आत्मा का मन के योग से, मन का इन्द्रिय के योग से तथा इन्द्रिय का अर्थ के योग से अर्थात् इन चारों के सन्निकर्ष से घट आदि रूपी पदार्थों का ज्ञान होता है, तीन के सन्निकर्ष से शब्द का और दो के सन्निकर्ष से सुख आदि का ज्ञान होता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण बताये गये हैं। इति वैशेषिक दर्शन जैन दर्शन - अब हम यहां जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रमाण और प्रमेय की अवधारणा का उल्लेख करते हैं। वे इस प्रकार हैप्रमेय - जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। ये (सात) तत्त्व हैं। सुख, दुख आदि की अनुभूति तथा ज्ञानादि के लक्षणों से युक्त आत्मा जीव है। अजीव इसके विपरीत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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