Book Title: Sarvsiddhantpraveshak
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 41
________________ २७ काल – पर, अपर, व्यतिकर, योगपद्य, अयोगपद्य, चिर और क्षिप्र - ये इसके लिंग है। वह संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग एवं विभाग - इन पाँच गुणों वाला है। दिक - यहाँ, वहाँ, आदि दिक् अर्थात् दिशा के लिंग है। वे इस प्रकार हैं :- यह वायु पूर्व से आती है, वह वायु उत्तर से आती है आदि । संख्या परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग - ये उसके पाँच गुण हैं। यही इसकी संज्ञा और परिभाषा है।। आत्मा - आत्मतत्त्व के आधार पर आत्मा है। वह चौदह गुणों वाली है। बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रत्ययलिंग, धर्म, अधर्म, संस्कार, संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग एवं विभाग - ये आत्मा के चौदह गुण हैं। मन - मनस्त्व के आधार से मन की सत्ता है। ज्ञानोत्पति का क्रम संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व और वेग - ये उसके आठ गुण हैं। इति द्रव्य पदार्थ। गण - रूप, रस, गन्ध और स्पर्श -ये विशेष गुण हैं। संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, वियोग, परत्व और अपरत्व -ये सामान्य गुण कहे गये है। बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार -ये आत्मा के गुण है। गुरूत्व -पृथिवी और पानी का गुण है। द्रव्यत्व -पृथिवी, पानी और अग्नि में होता है। स्नेह --पानी का ही गुण है। वेग को संस्कार कहा गया है, जो मूर्त द्रव्यों में ही होता है। आकाश का गुण शब्द है। गुणत्व के आधार पर गुण कहे जाते हैं, वे विशेष और सामान्य ऐसे दो प्रकार के होते हैं। रूपत्व के योग से रूप, रसत्व के योग से रसादि गुण होते हैं। इति गुण पदार्थ कर्म – क्रिया को कर्म कहते हैं। कर्म पाँच प्रकार के हैं – (1) उत्क्षेपण (ऊपर फेंकना) (2) अपक्षेपण (नीचे फेंकना) (3) आकुंचन (सिकुड़ना) (4) प्रसारण (फैलाना) और (5) गमन। गमन में भ्रमण, स्पन्दन, नमन, उठना, अवरोध आदि क्रियाएं समाहित हैं। इति कर्म पदार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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