Book Title: Sarvsiddhantpraveshak
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 7
________________ संबंधी अनेक मान्यताओं का, उसके विविध मार्गों का निष्पक्ष भाव से या समदृष्टिपूर्वक अध्ययन करके युक्त लगने वाले मार्ग पर स्वयं की आस्था को केन्द्रित करे। मोक्ष के उपायों की चर्चा के संबंध में भी सभी शास्त्र एक मत नहीं है। सभी के अध्ययन के लिए बहुत समय और परिश्रम की आवश्यकता होती है। दर्शनशास्त्रों का अध्ययन बहुत सुगम एवं अल्पसमयसाध्य बन सके इस अपेक्षा से कई ग्रन्थों की रचना की गई है। जिनमें भिन्न-भिन्न मुख्य दार्शनिक विचारों का संग्रह किया गया है। इसमें सबसे पुरानी रचना पूज्य सिद्धसेनदिवाकरजी की बत्तीस द्वात्रिंशिकाए हैं, जिनमें से बाईस आज भी उपलब्ध हैं। किंतु ये बहुत ही कठिन एवं गूढार्थ वाली है। इसके पश्चात् आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा रचित षड्दर्शनसमुच्चय नाम का ग्रन्थ बहुत ही सुन्दर और उत्तमकोटि का है। जिससे विभिन्न दर्शनों का ज्ञान सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। वर्तमान समय में भी कितने ही विश्वविद्यालयों में दर्शनशास्त्र की एम. ए. की परीक्षा में इस ग्रन्थ का अध्ययन आवश्यक है। इस आधार पर इसकी लोकप्रियता और उपयोगिता को जाना जा सकता है। इसका सर्वप्रथम प्रकाशन बंगाल की रॉयल एशयाटिक सोसायटी की तरफ से हुआ है। आचार्य हरिभद्र की पद्धति के अनुसार सर्वसिद्धान्तसंग्रह की तथा माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह आदि की रचना हुई है। माधवाचार्य के ग्रन्थ में एक कमी यह है कि, उनमें स्वयं को अनभिष्ट चार्वाकदर्शन को सबसे पहले रखा, फिर उसके पश्चात उसके खंडन के रूप बौद्ध दर्शन को रखा, फिर बौद्ध दर्शन के खण्डन के रूप जैन दर्शन को रखा, उसके पश्चात् जैन दर्शन के खण्डन के रूप में रामानुजदर्शन को रखा, इस प्रकार दर्शनों को उत्तरोत्तर क्रम में रखकर अंत में स्वयं को मान्य शांकरदर्शन को सर्वश्रेष्ठ दर्शन के रूप में रखा। अपने दर्शन को सत्य और अन्य को असत्य करार दिया। यह दृष्टिकोण भिन्न दर्शनों के अनुयायियों को अरूचिकर प्रतीत हुआ। जबकि षड्दर्शनसमुच्चय ग्रन्थ में किसी भी दर्शन को सत्य-असत्य नहीं बताया गया है। केवल माध्यस्थ भाव से दर्शनों को प्रस्तुत किया गया है। इसमें उनकी सत्यता या असत्यता के लिए स्वयं निर्णय करने का अवकाश है। इसी कारण सभी दर्शनों के अनुयायियों को इसका अध्ययन प्रिय लगता है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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