Book Title: Sarvsiddhantpraveshak
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 37
________________ कहा नहीं जा सके, वह अव्यपदेश्य होता है। ज्ञान व्यभिचारी (विकल्पात्मक) भी होता है और अव्यभिचारी (निर्विकल्प) भी होता है। साथ ही वह व्यवसायात्मक अर्थात् निश्चयात्मक भी होता है, इसके द्वारा संशयात्मक ज्ञान आदि की प्रमाणरूपता का खण्डन (विच्छेद) हो जाता है। इस प्रकार ये प्रत्यक्ष ज्ञान के लक्षण बताए गए है। अनुमान - प्रत्यक्षपूर्वक तीन प्रकार का अनुमान ज्ञान होता है, पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट । त्रिविध लिंग (हेतु या साधन) की अपेक्षा से अनुमान के भी ये तीन भेद होते हैं :पूर्ववत् अनुमान - इसमें कारण से कार्य का अनुमान किया जाता है। जैसे घने बादल देखकर हम यह अनुमान करते हैं कि वर्षा होगी। शेषवत् अनुमान - इसमें कार्य से कारण का अनुमान किया जाता है, जैसे नदी जल से भरी हुई है, प्रवाह तेज है, इससे हमें यह अनुमान होता है कि, ऊपर कहीं वर्षा हुई होगी। सामान्यतोदष्ट - देवदत्त आदि किसी व्यक्ति के द्वारा सूर्य प्रातःकाल पूर्व दिशा में तथा सायंकाल पश्चिम दिशा में देखा गया। इससे यह अनुमान किया जाता है कि सूर्य गतिमान है। उपमानप्रमाण - प्रसिद्ध वस्तु विशेष के सादृश्यता रूप साधन के ज्ञान से साध्य का ज्ञान उपमान प्रमाण कहलाता है। जैसे प्रसिद्ध गाय की समानता वाले साधन अर्थात् सींग, फटे खुर आदि से साध्य 'गवय' का ज्ञान करना उपमान प्रमाण कहलाता है, अर्थात् जैसी गाय वैसी गवय। पुनः इस उपमान प्रमाण के द्वारा ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाता है ? इसका उत्तर है, उपमान प्रमाण से ज्ञान प्राप्त करने के लिये संज्ञा और संज्ञी के बीच सम्बन्ध का ज्ञान आवश्यक है। शब्दप्रमाण - किसके शब्द (वचन) प्रमाण हैं ? इसका उत्तर है, आप्त द्वारा कथित शब्द ही प्रमाण हैं। आप्त निश्चित ही साक्षात्कृतधर्मा होता है, अर्थात् जिसने सुदृढ़ प्रमाणों के आधार पर अर्थ का निश्चय कर लिया हो, ऐसे व्यक्ति द्वारा जो कथन किया जाता है, वह आप्तोपदेश रूप कथन आगम या शब्द प्रमाण कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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