Book Title: Saptatishat Sthana Prakaranam Part 1
Author(s): Ruddhisagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir
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( ४६ ) पञ्चवर्णकुसुमवृष्टिः, सुगन्धजलवृष्टिर्वायुरनुकूलः । षड्ऋतुपञ्चेन्द्रियार्था-अनुकूला दक्षिणाः शकुनाः ॥ १९९ ॥ नखरोम्णामवृद्धि-रधोमुखाःकण्टकाश्च तरुनमनम् ।
सुरकोटीजघन्येनाऽपि, जिनान्तिके एते सुरकृताः ॥२०॥ ते चउरो व अवाया-वगमाइसओ दुरंतघाइखया । नाणाइसओ पूआ-इसओ वयणस्सइसओ अ ॥ २०१॥ ते चत्वारो वाऽपायाऽ-पगमाऽतिशयो दुरन्तघातिक्षयात् । ज्ञानाऽतिशय: पूजा-ऽतिशयो वचनस्याऽतिशयश्च ॥२०१॥ वयणगुणा सग सदे, अत्थे अडवीस मिलिअ पणतीसं ।
हि मणुन्नं, जिणाण वयणं कमेण इमं ॥ २०२ ।। वचनगुणाः सप्त शब्दे-ऽर्थेऽष्टाविंशतिर्मिलिताःपञ्चत्रिंशत् । त्रिंशत् तैर्गुणैर्मनोज्ञं, जिनानां वचनं क्रमेणेदम् ॥ २०२ ।। वयणं सकारगभी-रघोसउवयारुदत्तयाजुत्तं । पडिनायकरं दक्खि-नसहिअमुवणीअरायं च ॥ २०३ ॥ वचनं संस्कृतगम्भीर-घोषोपचारोदात्ततायुक्तम् । प्रतिनादकरं दाक्षिण्य-सहितमुपनीतरागञ्च ॥ २०३ ॥ सुमहत्थं अवाहय-मसंसयं तत्तनिढि सिटुं । पच्छावुचियं पडिहय-परुत्तरं हिययपीइकरं ॥ २०४॥ अन्नुन्नसाभिकखं, अभिजायं अइसिणिद्धमहुरं च । ससलाहा परनिंदा-वजिअमपइन्नपसरजुअं ॥२०५ ।।
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