Book Title: Saptatishat Sthana Prakaranam Part 1
Author(s): Ruddhisagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 340
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८१ ) इह बिसयरि सयरेहा, उड्डुं तिरिअं तु ठवसु सगवीसा ॥ इगसरि सउ छवीसा, घरंकभवमाइसंखकए ।। ३५५ ।। इह द्विसप्ततिशतं रेखा - ऊर्द्धास्तिर श्रीस्तु स्थापय सप्तविंशतिम् । एकसप्ततिशतषड्विंशति- गृहाणि भवादिसंख्याकृते ॥ ३५५॥ सुहगहणदाणगाहण-धारणपुच्छणकएत्ति संगहिआ । जिणसतरिसयं ठाणा- जहासुअं धम्मघोससूरीहिं ॥ ३५६ ॥ सुखग्रहणदानग्राहण-धारणपृच्छनकृते संगृहीतानि ॥ जिनसप्ततिशतं स्थानानि यथाश्रुतं धर्मघोषसूरिभिः ॥ ३५६ ॥ जं महमोहाइवसा, ऊणं अहियंव इह मए लिहिअं ॥ तं सुअहरेहिं सवं, खमियवं सोहियवं च ॥ ३५७ ॥ यन्मतिमोहादिवशात्, न्यूनमधिकं वाऽत्र मया लिखितम् ॥ तच्छ्रुतधरैश्च सर्वं, क्षन्तव्यं शोधितव्यं च ।। ३५७ ॥ ॥ ३५८ ॥ ॥ ३५८ ॥ तेरहसयस सीए, लिहिअमिणं सोमतिलयसूरीहिं ॥ अब्भत्थणाए हेम-स्स संघवइरयणतणयस्स त्रयोदशशत सप्ताशीतितमे, लिखितमिदंसोमतिलकसूरिभिः ॥ अभ्यर्थनया हेम-स्यसंघपतिरत्नतनयस्य सतरिसयपमाणे जो जिणाणेअ ठाणे, पढइ सुणइ झाणे ठावए वा पहाणे || लहुदरिसण नाणे पाविऊणं अमाणे, परमसुहनिहाणे जाइ सो सिद्धिठाणे सप्ततिशतप्रमाणानि यो जिनस्थानकानि, पठति शृणोति ध्याने स्थापयेद्वा प्रधाने ॥ For Private And Personal Use Only ॥ ३५९ ॥

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