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आठवां परिशिष्ट
१०३ जाता है। यहां परः सन्निकर्ष-अत्यन्त समीता से अभिप्राय है दो वर्णों की अभिव्यक्ति के लिये जो दो प्रयत्न होते हैं उन के मध्य में जो अत्यन्त सूक्ष्म काल का व्यवधान करना पड़ता है उतना ही स्वल्पविराम दो पदों के मध्य में भी किया जाता है। इसलिये जैसे एक पद के सभी वर्गों के ऊपर एक शिरोरेखा देते हैं (यथा-अर्पयतु में) ५ उसी प्रकार मन्त्र में जहां तक नियत विराम न आवे, सभी पद एक शरोरेखा के नीचे लिखे जाते हैं। यथा-इषेत्वोर्जेत्वावायवस्थदेवोसविताप्रार्पयतु इत्यादि।
संहिता पाठ में केवल वर्गों की ही सन्धि नहीं होती है, अपितु उदात्तादि स्वरों में भी विकार होते हैं।
भारतीय समस्त वैदिक सम्प्रदाय इस बात में सहमत हैं कि मन्त्रों का संहितापाठ अपौरुषेय वा प्राचीन है। उसी पाठ का शाकल्यादि ऋषिमुनियों ने पदपाठ का प्रवचन किया अर्थात् पदच्छेद किया। अतः वह आर्षेय वा औत्तरकालिक है । इसी पदच्छेद को आधार । बना कर दो दो पदों का पूर्वनिदर्शन के अनुसार क्रमपाठ अथवा क्रम- १५ संहिता का प्रवचन किया।
प्रातिशाख्यों के उपदेश का प्रयोजन पदपाठ और क्रमपाठ है । इसलिये पदप्रकृतिः संहिता लक्षण का मूल अर्थ 'पद है प्रकृति जिसकी वह संहिता' ही है। प्रातिशाख्यों द्वारा सन्धि आदि के नियमों का वर्णन क्रमपाठ वा क्रमसंहिता में दो दो पदों के संयोग में होने वाले २० वर्ण विकार और स्वर विकार के निदर्शनार्थ ही है। पदप्रकृतिः संहिता का उक्त बहुव्रीहि समास वाला अर्थ ही निरुक्त में अभिप्रेत है यह बात यास्क के पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि इस उत्तर वचन से व्यक्त है क्योंकि इस वचन का सर्वसम्मत अर्थ है- पद हैं प्रकृति जिनकी, ऐसे सर्व चरणों के पार्षद प्रातिशाख्य हैं।' अर्थात् प्राति- २५ शाख्यकार पदों को प्रकृति मान कर अपने शास्त्र का प्रवचन करते हैं।
संहितापाठ, पदपाठ और क्रमपाठ तीनों का भिन्न भिन्न प्रयोजन है-अध्ययन में और यज्ञों में मन्त्र संहिता रूप में ही प्रयुक्त होते हैं । पदपाठ का प्रयोजन है पदच्छेद, अवग्रह और प्रगृह्यत्व के निर्देश ३०