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नौवां परिशिष्ट
१२३ उन्होंने सृष्टिधर के इस कथन के आधार पर ऐसा माना है कि भागवृत्ति राजा श्रीधरसेन के आदेश पर रची गई। यह काल माघ के उद्धरण के साथ सङ्गत नहीं होता. जब तक माघ को सामान्यतः अभिमत की उपेक्षा करके प्रचीनतर न माना जाय ।
३४. (पृ० २८६)-वर्धमान तथा हेमचन्द्र ने क्षीरस्वामी का ५ स्मरण किया है। यह स्थापित करता है कि क्षीरस्वामी, जैसा कि लीविश का सुझाव है, बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के पश्चात् नहीं रखा जा सकता। यु० मी० (१९७३:२।८६-६३६) ने प्रमाण प्रस्तुत किया है जिससे क्षीरस्वामी सं० ११०० (१०४३।४ ई०) पश्चात् नहीं रखा जा सकता।
१० ३५. (पृ० २६६)-'वाक्यपदीय' शब्द का प्रयोग प्रथम दो काण्डों और 'त्रिकाण्डी' का प्रयोग सम्पूर्ण ग्रन्थ के लिए होता था ।५०१
टि० ५०१(पृ० ३६४)-अक्लुजकर ने उनके विपरीत प्रतिपादन किया है जो वाक्यपदीय शब्द को सम्पूर्ण ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त मानते हैं और इस शीर्षक के प्रथम दो काण्डों के लिए प्रयोग की व्याख्या की १५ है। यु० मी० (१९७३:२:४००*) इस शीर्षक को केवल द्वितीय काण्ड के लिए मानते हैं, जो उनका पूर्व मत था, अपने इतिहास के इस भाग के प्रथम संस्करण में । अक्लुजकर ने ठोक कहा है कि इस मत को कोई समर्थन प्राप्त नहीं है।
$ यहां लेखक का अभिप्राय माघ के 'अनुत्सूत्रपद न्यासा सवृत्ति: सनि- : बन्धना' (२।११२)श्लोक में टीकाकार द्वारा किये गये ‘पद का अर्थ महाभाष्य, न्यास का अर्थ जिनेन्द्रबुद्धि विरचित न्यास और सद्वति का अर्थ काशिका' अर्थों पर आधृत है।
माघ कवि के पितामह के आश्रय-दाता महाराज वर्मलात का सं० ६८२ (सन् ६२५) का 'वसन्तगढ़' का शिलालेख प्राप्त हो चुका है (हपने इसका निर्देश भाग १, पृष्ठ ४६४; प्रस्तुत सं० ५०६ किया है)। अतः उसकी २५ विना परीक्षा किये 'सामान्यतः अभिमत काल' की रट लगाना शोध कार्य के अनुरूप नहीं है। पूर्व लेखकों ने जब माघ का काल सन् ८०० (सं० ८५७) स्थिर करने का प्रयल किया था, उस समय महाराज वर्मलात का वसन्तगढ़ का सं० ६८२ का शिलालेख प्राप्त नहीं हुआ था। ... प्रस्तुत संस्क०, भाग२,पृष्ठ ६४। * प्रस्तुत संस्क०भाग २,पृष्ठ४३७ ।
* इस से विदित होता है कि श्री जार्ज कार्डोना ने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र २० का इतिहास' के सन् १९७३ से पूर्व के संस्करणों का भी अवलोकन किया था।
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