Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 05
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ * प्रकाशकीय निवेदन श्री सिद्धसेनदिवाकर सूरिविरचित श्री सन्मति तर्कप्रकरण की व्याख्या एवं हिन्दी विवेचन के साथ दूसरा खंड प्रकाशित करने के बाद अब पंचमखंड का प्रकाशन करते हुए हमें आनंद ही आनंद है । श्री जैनशासन में दर्शनप्रभावक शास्त्रग्रन्थों में श्रीसन्मति तर्कप्रकरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है । श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी महाराज जैन शासन के प्रभावक आचार्यों में अग्रगण्य रहे हैं। आप ने संवत् प्रवर्त्तक अवन्तिराज विक्रम को धर्मोपदेश दे कर श्रीजिनशासन का भक्त बनाया। विक्रमराजा ने आप को सर्वज्ञतुल्य समझ कर कोटि द्रव्य दान में दिया किंतु आपने निःस्पृहता से कह दिया दरिद्रान् भर राजेन्द्र ! हे राजन् तू इस धन से दरिद्र - अनाथ लोगों को ऋणमुक्ति प्रदान कर ! विक्रम राजा ने पूज्यश्री के आदेश को शिरोधार्य कर के सभी कर्जदारों को कर्ज से मुक्ति दिलाई- उसी की याद में विक्रमसंवत् का प्रवर्त्तन हुआ। ऐसे महामहिम निःस्पृह आचार्य के चरणों में हम बार बार वन्दना करते हैं। उन का बनाया हुआ यह तर्कप्रकरण अनेक गूढ रहस्यों से भरा हुआ है । अनेक दार्शनिक तथ्यों का इस में स्पष्टीकरण किया गया है। स्व.पूज्यपादगुरुदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. की कृपा से ही इस ग्रन्थरत्न के प्रकाशन का लाभ हमें प्राप्त हुआ है। उन्हीं के आदेश को शिरोधार्य कर के उन्हीं के विद्वान प्रशिष्यरत्न पूज्य पं. श्री जयसुंदरविजय गणि महाराज ने हिन्दी विवेचन की रचना कर के एवं पूरे ग्रन्थ का सम्पादन - संशोधन कर के जैन शासन की महती सेवा की है। इस खंड के प्रकाशनार्थ श्री उमरा जैन श्वे. मू. संघ (सूरत) की ओर से अपने ज्ञाननिधि से आर्थिक सहायता प्राप्त हुई है उसकी हम अनुमोदना करते हैं । इस कार्य में प्राचीन हस्तलिखित प्रतों के ज्ञानभंडार एवं मुद्रित ग्रन्थवाले ज्ञानभंडारों के व्यवहारचिन्तकों का भी सहयोग उल्लेखार्ह है, जिन्होंने उदारमन से अपने अपने मूल्यवान् ग्रन्थों का विनियोग किया है। 5 स्मरण में रहे कि सन्मति तर्क ० के हिन्दीविवेचनवाले प्रथमखंड का प्रकाशन शेठ मोतीशा लालबाग ट्रस्ट - भूलेश्वर - मुंबई की ओर से वि.सं. २०४० में हुआ था। उस के बाद वि.सं. २०५१ में हमारी संस्था से इसी ग्रन्थ का दूसरा खंड प्रकाशित हुआ है। और अब हमारी संस्था से यह पंचम खंड का प्रकाशन हो रहा है । ( उस की यह द्वितीयावृत्ति पुनर्मुद्रित है ।) ऐसे उत्तम ग्रन्थरत्न के प्रकाशनार्थ श्री उमरा जैन श्वे. मू. संघ (सूरत) की ओर से अपने ज्ञाननिधि में से संपूर्ण आर्थिक लाभ लिया गया है धन्यवाद् के पात्र हैं। ग्रन्थमुद्रण के लिये टाईप - सेटिंग करने वाले श्री पार्श्व कोम्प्युटर्स (मणिनगर - अहमदावाद) के अजयभाई एवं विमलभाई दोनों अभिनंदन के पात्र हैं । ऐसे उत्तम ग्रन्थरत्नों के प्रकाशनार्थ हमारी संस्था सदैव प्रगति करती रहे यही शासनदेव को प्रार्थना । लि. Jain Educationa International श्री दिव्यदर्शनट्रस्ट के ट्रस्टीगण की ओर से कुमारपाळ वि. शाह For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 442