Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 05 Author(s): Abhaydevsuri Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 7
________________ * गुरूदेव के आशिर्वचन * - पंचम आरानो आ एक महत्त्वनो ग्रंथ पूर्वधर महाज्ञानी पुरूषे रच्यो छ कारणके चोथा आरामां केवळज्ञानीअवधिज्ञानी अने अनेक लब्धिवाळा अने अनेकानेक विशिष्ट ज्ञानीओना योगनी प्राप्ति थवाथी सन्मार्गमा जोडाएला जीवो ज वधारे रहेता हता अने ते जीवो पण अधिक सरळ अने सूक्ष्म विचारक हता. ज्यारे पांचमा आरामां मिथ्यादर्शनोनुं बळ वध्यु - जैनदर्शनना विशिष्टज्ञानीओ वगेरेनी आपेक्षित ओछाश मंदता थवाथी मिथ्यादर्शनो अनेक प्रकारना कुतर्कोथी उन्मार्ग प्रवर्ताववा असत्प्ररूपणा करवा लाग्या. जोके सर्वकाळ माटे जैनदर्शन अने एना सिद्धांतो अबाधित अने प्रभावशाळी रह्या छे अने रहेवाना छे छतां श्री सिद्धर्षि गणधर बौद्धदर्शनथी भरमाया अने जैनदर्शनथी पाछा स्वस्थ थया, छेवटे तो ललितविस्तरा ग्रंथ ज एमने दृढ स्थिर थवामां कारण बन्यो. ए ग्रंथ पण आपनार एमना गुरु ज हता. ज्यारे गुरुर्नु पण न चाले त्यारे एवा उत्तम मार्मिक शास्त्रो तेवा जीवोने मार्गमां स्थिर करवा काम लागे छे आ दृष्टिथी जेम ललितविस्तरानी रचना छे तेम मिथ्यादर्शनना अनेक असंबद्ध अने असत् पदार्थोनुं तार्किक अने संगीन खंडनपूर्वक जैनदर्शन मान्य वातोनुं सतर्क हृदयग्राही खंडन आ ग्रंथमां टीकाकार भगवंतोए कर्यु छे - आ टीका ग्रंथ पण कठन अने श्रमग्राह्य तीक्ष्णबुद्धिग्राह्य छे तेथी ज आवा ग्रंथोने व्यवहारिक अने भाषागम्य करवा माटे सूक्ष्मबुद्धि न्यायनी मार्मिक समजण अने भाषामां उतारवा माटे चालु भाषानी पण सुंदर लेखन शैली पामेला वर्षो सुधी प्राचीन अने नव्य न्यायना ऊँडा उभ्यासी-जैनदर्शनना न्याय अने तत्त्वोना अभ्यासी एवा शिष्यरत्न आचार्यश्री जयसुंदरसूरिजीए ३०-३२ वर्षना परिश्रम द्वारा आ ग्रंथने लोकभाषामां सरळ ग्राह्य बनाव्यो छे. जाते ज लेखन कर्यु छे. बीजो आवो ज अति मोटो अने अतिगंभीर तर्क न्याय अने चर्चापूर्ण ग्रंथ शास्त्रवार्तासमुच्चय ग्रंथ छे - एर्नु पण सांगोपांग संपादन पोते कयुं छे आ ग्रंथना अभ्यासथी जैनशासन दर्शननुं व्यवहारिक गौरव तो घणुं ज वधशे अने तार्किकदृष्टिवाळा अभ्यासको प्रभुना मार्गमा दृढ स्थिर थशे. आवा ग्रंथोनु माहात्म्य पांचमा आरामां सविशेष जरूरी छे. ग्रंथकार अने टीकाकारनी जेम आवा ग्रंथोना अनुवादो विवेचनो ए संघनी कीमती मूडी छे अने भंडारोमां व्यवस्थित संग्रहणीय अने रक्षणीय छे. जेम अति कीमति रत्नो कोईने अने क्यारेक तेवा पून्यशाळीने ज काम लागे. परंतु तेनो संग्रह अने रक्षण सर्वप्रयत्नोथी कराय छे तेम आ ग्रंथना भणनार अल्प-अल्पतम होय तेथी एनुं माहात्म्य घटतुं नथी. आ ग्रंथनी जेम परमगुरुदेव श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजे ललीतविस्तरानुं जे विवेचन लख्युं छे ते पण न्यायतर्क अने जैनमार्गना तर्को अने तत्त्वथी पूर्ण शासननो अमूल्यग्रंथ छे जे श्रद्धाने अने परमात्मा उपरनी भक्तिने अत्यंत विकसित करे छे. अनेक ज्ञानी महात्माओ आ रीते अतिउपयोगी ग्रंथोनुं विरचन अने विशुद्धीकरण करे छे आ पण प्रभुना शासननी बलिहारी छे. आ ग्रंथकार अनुवादना प्रयत्ननी खुब खुब अनुमोदना- संयम पालननी सर्वतोमुखी जागृति, प्रभु मार्गनी प्ररूपणा द्वारा देशनाद्वारा प्रभुशासनने अखंडित प्रवाहीत वहन करवो-कराववो अने शास्त्रचिंतन-मनन द्वारा आत्माने भावित करवानुं कार्य शासनना श्रमणोनुं छे. तेमा प्रवर्तन करनार टकी रहेनार सौने धन्यवाद ! अनुमोदना. सान्ताक्रुझ - वि०सं० २०६७, श्रा० सु० १ लि० विजयजयघोषसूरि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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