Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02 Author(s): Abhaydevsuri Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 8
________________ प्रस्तावना I श्री जैन शासन का इतिहास अनेक न्यायप्रविण जैनाचार्यों और उन के न्यायग्रन्थों से गौरवान्वित है । श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी से ले कर आचार्य भुवनभानुसूरिजी पर्यन्त अनेक उज्ज्वल संत पुरुषों ने जैन न्याय की परम्परा की शान बढायी है । श्री सन्मति नामक तर्कप्रकरण सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी की अनमोल कृति है । इस महान् कृति की तत्त्वबोधविधायिनी संज्ञक व्याख्या में ११वी सदी के आचार्य तर्कपञ्चानन अभयदेवसूरीश्वरजी महाराजने स्फुट अर्थविस्तार कर के यह दिखा दिया है कि जैनाचार्यों की संक्षिप्त कृति में भी कितना विशाल एवं कितना गहन अर्थराशि भरा हुआ रहता है। श्री मल्लवादिसूरिजी रचित एक व्याख्या का उल्लेख श्री हरिभद्रसूरिजी विरचित अनेकान्त - जयपताका ग्रन्थ में उपलब्ध होता है, किन्तु हन्त ! आज वह व्याख्या कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती । आज तो सिर्फ अभयदेवसूरिजी की एक ही विशद व्याख्या उपलब्ध हो रही हैं यह भी श्री जैनसंघ का एवं वर्त्तमान विद्वगण का बडा सौभाग्य 1 उपर लिखित सभी आचार्य श्वेताम्बर जैन परम्परा में दीक्षित, पंच महाव्रतों के धारक एवं पालक थे इस में कोई विवाद नहीं है। कहा जाता है श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरिमहाराजने बत्तीस बत्तीसियों की भी रचना की थी, लेकिन आज तो उन में से सिर्फ २१ ही उपलब्ध है जिस में न्यायावतार बत्तीसी प्रमुख है और उस के ऊपर अनेक आचार्यों के वार्त्तिक, टीका एवं टिप्पण उपलब्ध हैं । श्री अभयदेवसूरिजीने सन्मति ० व्याख्या के अलावा कोई ओर ग्रन्थ रचा हो ऐसा विदित नहीं है । उन नाम से वादमहार्णव ग्रन्थ का उल्लेख किया जाता है, लेकिन वह भी इस सन्मति की टीका से अभिन्न ही प्रतीत होता है । सचमुच, सन्मति ० की यह टीका अपने आप में वादमहार्णवरूप ही है । O सन्मति ० के प्रथम खंड में प्रथम काण्ड की सिर्फ एक ही मूलगाथा के ऊपर विस्तृत विवेचन किया है, तो इस दूसरे खंड में द्वितीय तृतीय और चतुर्थ गाथा ऊपर विस्तृत विवरण किया गया है । द्वितीय गाथा में कहा गया है कि आगम के अध्ययन में कुण्ठबुद्धि पुरुष भी पूर्वधर आदि महर्षियों की सेवा के द्वारा तत्त्वबोध के लिये सज्ज बन जाय ऐसा प्रतिपादन इस सन्मति ० प्रकरण में करेंगे । जैन आगमों ऐसे सूक्ष्म एवं गहन तत्त्वों का निरूपण है जो अन्य किसी भी सम्प्रदाय के शास्त्रों में लेशमात्र भी मिलना कठिन है इतना ही नहीं, उन आगमों के तत्त्वों के अध्ययन का सार भी उसी के हाथ में आ सकता है जिस की मति निर्मल एवं सूक्ष्म हो । नय - निक्षेप एवं अनेकान्तवाद के सम्यक् अभ्यास से ही बुद्धि निर्मल होती है, एवं प्रमाण- न्याय तर्क - युक्ति आदि के अभ्यास से ही मति सूक्ष्म बनती हैं । सन्मति ० का अध्ययन इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । दूसरी गाथा में द्रव्यास्तिक एवं पर्यायास्तिक मूल नवयुगल की प्ररूपणा की गयी है । तीसरी गाथा में द्रव्यास्तिक एवं संग्रहनय की प्ररूपणा की गयी है, व्यवहार नय का भी निरूपण है । तत्त्वबोधविधायिनी व्याख्या में निरूपित तत्त्वों का क्रम इस प्रकार है :- शास्त्र के प्रारम्भ में जो प्रयोजन वाक्य कहा जाता है उस का प्रयोजन क्या है उस की चर्चा पूर्वपक्ष उत्तरपक्ष में की गयी है । (पृष्ठ ३ से १३ ) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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