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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तिबद्धस्य च स्वसाध्यव्यभिचारेणाऽगमकत्वात्, तत्त्वे वातिप्रसंगात, तत्प्रतिबद्धत्वेऽप्यनिश्चितप्रतिबन्धस्यातिप्रसंगत एव अगमकत्वात् ।।
न च वाक्यमिदं प्रवर्त्तमानं स्वमहिम्नैव स्वार्थ प्रत्यायतीति शब्दप्रमाणरूपत्वात् स्वाभिधेयप्रयोजनप्रतिपादने प्रमाणम्, शब्दस्य बाह्येऽर्थे प्रतिबन्धाऽसम्भवेनाप्रामाण्यात्, विवक्षायां प्रामाण्येऽपि तस्या बाहार्थाऽविनाभावित्वाऽयोगात् । नापि ये यमर्थ विवक्षन्ति ते तथैव तं प्रतिपादयन्ति, अन्यविवक्षायामप्यन्यशब्दोच्चारणदर्शनात्, विवक्षायाच बाह्यार्थप्रतिवद्धत्वानुपपत्तेरेकान्ततः । तन्न शब्दादपि प्रमाणादादिवाक्यरूपात् प्रयोजनविशेषोपायप्रतिपत्तिः तदप्रतिपत्तौ च तेषां ततः प्रवृत्तौ प्रेक्षापूर्वकारिताव्यावृत्तिप्रसङ्गात्।
-"प्रयोजनविशेषोपायसंशयोत्पादकत्वेन प्रवृत्त्यङ्गत्वादादिवाक्यस्य सार्थकत्वम् । तथाहि - अर्थसंशवस्तु के कारणरूप में उस वाक्य से बोध्य श्रोता के प्रयोजन की किसी भी प्रमाण से उपलब्धि नहीं होती है। इसलिये श्रोता के अपने प्रयोजन की अनुमिति करानेवाला कोई ऐसा लिंग भी उपलब्ध नहीं है जो प्रयोजन के स्वभाव या कार्यरूप में प्रसिद्ध हो । तत्स्वभाव या तत्कार्य से भिन्न पदार्थ तंत् का लिंग नहीं बन सकता क्योंकि उसमें प्रयोजनरूप साध्य के साथ व्याप्ति नहीं होती । व्याप्तिशून्य पदार्थ अपने साध्य का द्रोही होने के कारण वह उसका बोधक नहीं होता। फिर भी उसको बोधक मानेंगे तो किसी भी पदार्थ को उस साध्य का बोधक मानने की आपत्ति आ पडेगी। मान लो कि उस पदार्थ में अपने साध्य के साथ व्याप्ति है किन्तु वह निश्चित नहीं है तो भी वह पदार्थ साध्य-बोधक नहीं हो सकता, क्योंकि अनिश्वितव्याप्तिवाले लिंग से साध्यबोध मानने पर, धूम में अग्नि की व्याप्ति का ज्ञान न होने पर भी बालक को धूम से अग्निज्ञान हो जाने का अतिप्रसंग मुँह फाड कर खडा है ।
★ बाह्यार्थ के साथ शब्द का सम्बन्ध अमान्य * 'यह आदि वाक्य शब्दप्रमाणरूप होने से उसका प्रयोग करने पर वह अपनी महिमा से ही स्ववाच्य अर्थ का बोध करायेगा' - ऐसा तो नहीं कह सकते, क्योंकि बाह्य अर्थ के साथ शब्द का किसी प्रकार सम्बन्ध संभव न होने के कारण शब्द को प्रमाणरूप नहीं मान सकते । कदाचित् वक्ता का तात्पर्य (=विवक्षा) जिस अर्थ में हो उस में शब्द का प्रामाण्य क्षणभर के लिये मान लिया जाय तो भी वह अँचता नहीं है चूँकि कभी कभी बाह्यार्थ न रहने पर भी उसमें वक्ता की विवक्षा हो सकती है जैसे कि वन्ध्यापुत्रादि शब्द का प्रयोग । तात्पर्य - 'वक्ता की विवक्षा बाह्यार्थ के होने पर ही होवे' - ऐसा नियम नहीं है । उपरांत, यह भी देखा जाता है कि वक्ता को जिस अर्थ में विवक्षा होती है उसी अर्थ का उसी ढंग से (जिस ढंग की विवक्षा हो) प्रतिपादन वक्ता करे ऐसा नहीं होता, कभी कभी तो विवक्षा कुछ अश्वादि विषयक हो और प्रतिपादन धेनु आदि शब्दोच्चार से किया जाय ऐसा दिखाई देता है । तथा, विवक्षा नियमत: बाह्यार्थ से प्रतिबद्ध ही हो यह बात सिद्ध नहीं है । निष्कर्ष, आदिवाक्यरूप शब्दात्मक प्रमाण से भी श्रोता को अपने प्रयोजनविशेष की और 'यह ग्रन्थ उस का उपाय है' इस प्रकार की उपलब्धि शक्य नहीं है, उपलब्धि के बिना भी यदि बुद्धिमान लोग उस वाक्य से प्रवृत्ति करेंगे तो उनके बुद्धिपूर्वककार्यकारित्व गुण को क्षति पहुंचेगी।
★संशयजनक होने से आदिवाक्य सार्थक यहाँ सार्थकतावादी ऐसा कहता है कि - आदिवाक्य से, "इस शास्त्र का श्रवण अपने प्रयोजन के उपायभूत
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