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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ पारमार्थिकसम्बन्धप्रतिपादनायाऽभेदविवक्षया "प्रथने वावशब्दे" [पाणि० ३-३-३३] इति पञ् न कृतः - तस्य विहाटः इति दीप्यमानान् = श्रोतुबुद्धौ प्रकाशमानानान् दीपयति = प्रकाशयतीति विहाटश्चासौ जनश्च = चतुर्दशपूर्व विदादिलोकः तस्य पर्युपासनम् - कारणे कार्योपचारात् - सेवाजनिततद्व्याख्यानं तत्र सह कर्णाभ्यां वर्तते इति सकर्णः = तद्व्याख्यातार्थावधारणसमर्थः यथा इति येन प्रकारेण भवति तं तथाभूतमर्थमुन्नेष्ये = लेशतः प्रतिपादयिष्ये ।
___ यथाभूतेनार्थेन प्रतिपादितेनातिकुण्ठधीरपि श्रोतृजनो विशिष्टागमव्याख्यातृप्रतिपादितार्थावधारणपटुः सम्पयते तमर्थमनेन प्रकरणेन प्रतिपादयिष्यामीति यावत् ।
[शब्द-अर्थ-तत्सम्बन्धमीमांसा-पूर्वपक्षः ] ननु च 'समयपरमार्थविस्तर' इत्यनेनागमस्याऽकल्पितो बाह्यार्थः प्रतिपाद्यत्वेन, शब्दार्थयोश्च वास्तवः से यदि घञ् प्रत्यय किया जाता तो विस्तार शब्द बनता, किन्तु वह प्रत्यय यहाँ नहीं किया है । घञ् प्रत्यय शब्दभिन्न पदार्थों की विस्तीर्णता सूचित करने के लिये किया जाता है। यहाँ भी अर्थों के विस्तर की बात है, शब्दों के नहीं, इसलिये पञ् करना न्याययुक्त था, फिर भी घञ् प्रत्यय नहीं किया, इस का कारण, यह सूचित करना है कि यद्यपि शब्द और अर्थ में कुछ भेद अवश्य है, भेद होने पर भी उन दोनों का सम्बन्ध वास्तविक है काल्पनिक नहीं । इस बात की सूचना देने के लिये ग्रन्थकार ने शब्द और अर्थ के अभेद की विवक्षा की है। इस विवक्षा के अनुसार अर्थ भी शब्दरूप हुए अत: घञ् प्रत्यय नहीं किया है । 'विहाट' का अर्थ है श्रोता की बुद्धि में दीप्यमान यानी स्फुरायमाण अर्थों को प्रकाशित करने वाला । हैम-धातुपारायण में हट् धातु का दीप्ति- अर्थ कहा है ।] ऐसा 'जन' यानी चौदपूर्ववेत्ता आदि बडे विद्वान लोग, उन की पर्युपासना यानी सेवा; किन्तु यहाँ कारण में कार्य का उपचार है इसलिये सेवा द्वारा लब्ध होनेवाला आगम का व्याख्यान - ऐसा अर्थ है । उस व्याख्यान से व्याख्यात अर्थ का अवधारण करने में जो समर्थ हो उस पुरुष को सकर्ण कह सकते हैं क्योंकि वास्तव में वही दो कान वाला है । 'यथा' का अर्थ है जिस रीति से । उनेष्ये यानी कुछ अंश में प्रतिपादन करुंगा। ___ इस प्रकार पदों के अर्थों से निम्नलिखित वाक्यार्थ फलित होता है -
"जिस प्रकार के अर्थ का प्रतिपादन करने से, अत्यन्त मन्द बुद्धिवाला श्रोतावर्ग भी विशिष्ट प्रकार के आगम के व्याख्याताओं के द्वारा कहे जाने वाले अर्थों को समझने में सक्षम हो, ऐसे अर्थ का मैं इस प्रकरण से प्रतिपादन करुंगा।"
★ अपोह ही शब्दार्थ है-बौद्ध पूर्वपक्ष★ अपोह को ही शब्दार्थ मानने वाले बौद्धवादी यहाँ विस्तार से ऊहापोहसहित अपना अभिप्राय प्रगट करते हुए कहते हैं -
समयपरमार्थविस्तर..... इत्यादि सूत्र से आपने यह निर्देश किया कि आगमप्रतिपाद्य बाह्य अर्थ अकल्पित है और शब्द के साथ अर्थ का कोई वास्तव संबन्ध, भी है - किन्तु ये दोनों बात प्रमाणबाधित होने से गलत है । प्रमाणबाध इस प्रकार है - शब्द से वाच्य कोई पारमार्थिक वस्तुस्वरूप है ही नहीं । समुची शाब्दिक प्रतीति
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