Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 15
________________ शक्तिमान से शक्ति एकान्त अभिन्न नहीं क्षणिकभाव में क्रमिक कार्यकारिता दुघट सहकारित्व यानी एककार्यकारित्व कृतकत्व हेतु में अनैकान्तिकत्व दोष सजातीयअजनक में विजातीयजनकत्व दुर्घट कृतकत्व हेतु विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध सत्त्वोपलक्षित भाव में अर्थक्रिया निरूपण निरर्थक अक्षणिक भाव में अर्तक्रियाविरोधशंका का निर्मूलन अक्षणिक को अर्थान्तरापेक्ष का विरोधक निरर्थक परस्पर एकसामग्री अधीनतारूप उपकार की समीक्षा परस्परसांनिध्य में सामर्थ्यस्वीकार कारक - अकारक अवस्थाभेद एकत्वविरोधी नहीं अक्षणिक का देश-काल व्यतिरेक दुर्लभ नहीं अक्षणिक में अनन्वय सहचार विरह शंका का उत्तर नित्य सामान्य के वस्तुत्वका समर्थन जाति की ज्ञानजनकता का उपपादन सामान्य के विना समानाकार बुद्धि का असंभव २१० २११ २१२ २१३ २१४ २१४ २१६ Jain Educationa International २१६ २१७ २१८ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२४ २२५ २२६ २२८ अभिधेयत्व हेतु से अवस्तुत्वसिद्धि अशक्य भूत और भविष्य सर्वथा असत् नहीं अविसंवाद के विरह में भी संशय से प्रवृत्ति २२९ स्वलक्षण शब्द वाच्य न होने का कथन मिथ्या २३० २३० स्पष्टास्पष्टप्रतीतिभेद से विषयभेद असिद्ध शाब्द प्रतीति भ्रान्त नहीं होती समानपरिणति ही अन्यापोह है २३१ २३२ २३३ प्रतिबिम्बादिस्वरूप अपोह मानने में असंगति अनेकत्व को अतात्त्विक मानने में दूषणश्रेणि २३४ बाह्यार्थ में एकानेकरूपता अविरुद्ध तुल्य योगक्षेम से एकत्वसिद्धि असंभव सामानाधिकरण्यव्यवहारविभ्रमस्वरूप - पूर्वपक्ष २३५ २३५ २३७ अभेद के विना भी एक साथ ग्रहण- उत्तरपक्ष २३८ बौद्धमत में सादृश्य की अनुपपत्ति २४० विलक्षण पदार्थों में सारूप्य कैसे ? २४० २४१ २४३ २४३ २४४ देशादिनैरन्तर्य भ्रान्ति का मूल नहीं भेदपक्ष में भी एकार्थवृत्तित्व की उपपत्ति सम्बन्ध परित्यागमत में दोषाभाव - पूर्वपक्ष सम्बन्धाभावपक्ष में दोषसद्भाव - उत्तरपक्ष सकलोपाधिशून्य स्वलक्षणग्राही निर्विकल्पक असिद्ध है उपकारक उपकार्य में विशेषण - विशेष्यभाव प्रज्ञाकरमतनिरसनम् अनन्तधर्मात्मकवस्तु- पक्ष में लिङ्ग - संख्यादि का योग २४७ २४८ २४९ २५० ज़ैन सम्मत जातिपक्ष में दूषण निरवकाश शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अवश्य स्वीकार्य शब्द प्रमाण न मानने पर व्यवहारभंग दोष तत्त्वव्यवस्था के लीये अनुमानवत् शब्द प्रमाण २५२ मीमांसक मत के दोष जैन मत में निरवकाश २५३ व्यक्ति अनन्त होने पर भी संकेत की उपपत्ति २५४ विकल्प की महिमा से व्याप्ति का ग्रहण प्रत्यक्ष में सम्बन्धग्राहकता अवश्यमान्य शब्दप्रमाण माने विना तत्त्वव्यवस्था दुर्लभ प्रवृत्तिभंगदोष प्रत्यक्ष में भी तुल्य २५५ २५६ २५७ २५९ दृष्टश्रुत का ऐक्य न मानने पर अनिष्टपरम्परा २५९ विशेषण - विशेष्यभाव में अनुपपत्ति का निरसन २६१ नियतसंकेतानुसार नियत अर्थबोध २६१ शब्दजन्यज्ञान बाह्यार्थस्पर्शि २६२ सर्वात्मना अर्थाग्रहण बाह्यार्थस्पर्शाभावमूलक नहीं अपोहवाद निराकरण- उत्तरपक्ष समाप्त For Personal and Private Use Only २४६ २४६ २४७ २६३ २६४ www.jainelibrary.org

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