Book Title: Sangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Author(s): Jinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak

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Page 657
________________ अथ श्री संघपट्टकः (६३२) विज्रमं विचतस्तत्पथस्वजल्पनस्य तेषां संक्लेश देतुखेपि प्रवचनप्रजावना निमित्ततयाऽचिंत्य पुण्यसंचार कारणत्वेना जिधानात्तज्जल्पनमवश्यं कर्तव्यमेव ॥ अर्थः- केम जे ते सत्य वचन विघातनुं कारण वे ए हेतु माटे. त्यारे ते जगाए शुं करवुं ? तो तेथी उलटुं वचन बोलवु . केम जे ते जगाए ते उलढुं वचन बोलवु एज हितकारी बे. ते वचनज से जगाए सत्य बे, केम जे शास्त्रमां कह्युं बे जे, सत्य वचन ते कयुं ? तो तेनो उत्तर एम कयों बे जे, जे वचन प्राणी मात्रने हितकारी होय ते सत्य वचन जाणवुं. पूर्वे कयुं इत्यादि स्थळ एज ए आगमनो विषय बे. एटले एवी जगाए सत्य पण न बोलवु एम श्रनिप्राय छे. अहीं तो पासथ्यादि चोर पुरुषोए वश करीने उन्मार्गवके संसाररूपी पोताने रहेवानुं गाम ते प्रत्ये लइ जवा मांगेलो जेम जेने माथे राजा न होय तेवा जगतूने पोतानी नजरमां प्रावे त्यां खेंची जाय तेनी पेठे लोकना समूहने जोइ कोइ महा सत्ववंत प्राणीए ते सुंटाता लोकोनो पोकार सांजळी ते चोर लोकने क्लेशनुं कारण एवं पण ते चोरनुं नन्मार्गे वर्तवापणं प्रकाश करी देखामयुं, तेम प्रवचननी प्रजावना थाय एवा हेतुवमे चितवनमां न आवे एवा पुण्यन्ध समूहनुं कारण जाणी ते लिंगधारीजना स्वरूपनुं निरूपय कर्यु से शास्त्रमां करवानुं कथुं बे, माटे अवश्य करवा योग्यज बे. टीकाः ॥डुकं ॥ सुहसीलतेय गहिए, नवपाहीं तेष जगमिय मया ॥ जो कुणइ कुवियत्तं, सो वन्नं कुबइ संघस्स ॥

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