Book Title: Sangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Author(s): Jinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak

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Page 680
________________ 49अथ श्री संघपट्टका - धात्म संयम शरीरने बाधक नही करे, ए प्रकारे देश समय बळने श्रनुसरतुं जे अनुष्टान एटले विहार क्रमादि क्रियाकांम ते जेमने ने एवा. टीका--तथा अनेन पदछयेन ज्ञान क्रियानयानुगामित्वं तेषां निवेदितं ॥ तत्प्रधानत्वादीक्षायाः केवलयोरनिष्टफलत्वा. निधानेन समुदितयोरेव तयोः पंग्बंधयोरिवेष्टफलसाधकतया तैरिष्टत्वात् ।। ॥ यदाह ॥ हयं नाणं कियाहीणं हया अन्नाण क्रिया ॥ पासंतो पंगुलो दह्रो धावमाणो य अंधन ॥ अर्थ---वळी ते सुविहित साधुने श्राबे पदवमे ज्ञान क्रि. याने अनुसरवापणुं ने एम देखामयं केमजे दिवाने ज्ञान क्रियान प्रधानपणुं ने ए हेतु माटे, एकलुं ज्ञान अने एकली क्रीयानुं श्रनिष्ट फल का डे भाटे ए बे एकां होय त्यारेज पांगलो ने अंध ए बेनी पेठे इष्ट फलनुं साधकपणुं तेमणे मान्युं . ते वात शास्त्रमा कही बे, जे किया विनानुं ज्ञान ते होन . अने ज्ञान विनानी क्रिया जे ते हीण . जेम पांगळो वनमां दावानलने देखतो हतो तो पण दग्ध थयो अने आंधळो दोमतो हतो तो पण दग्ध थयो तेम एकढुं ज्ञान अथवा एकली क्रिया ते ए प्रकार, . . टीका:-संजोगसिद्धीए फलं वयंति,नहु एगचक्कण रहो पयााअंधो य पंगू य वणे समिच्चा ते संपत्ता नगरं पविठा। अर्थ:--माटे बेना संयोगमां सिद्धि फल रह्यु के एम

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