Book Title: Sangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Author(s): Jinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak

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Page 686
________________ ( ६६२) -48 अथ श्री संघपट्टकः अर्थ:---- जिनराजने वंदन करूं ढं ए प्रकारनो संबंध बे ते जिनराज केवा बे ? तो ऋण जगतने अतिक्रमण करे एवा चोत्री श अतिशय तेथे करीने अत्यंत शोभायमान एवा छाने नाश कयों बे हंकार जेम एवा, नयी काम ते जेमने एवा, अने सिद्धांतनी प्रज्ञा अतिक्रमण करनारनी आशाने न पूरनार एटले सिद्धांतनी ज्ञाने न माननार पुरुषनी न अनुमोदना करनार एटलो अर्थ. टीकाः – सद्ज्ञानमणिं सद्ज्ञानेन केवलज्ञानेन लोका लोकावजासकत्वाद् ज्ञास्वंतं जिनं तीर्थंकरं ॥ तथा ॥ सब सुरा जरूवं, अंगुठपमायं विन विज्जा ॥ जिणा पायगुरुपदे न सोहए तं जहिंगालो | अर्थ:- वळी जिनराज केवा बे तो केवलज्ञाने करीने देदीप्यमान, केमजे लोक तथा अलोकने प्रगट कही देखामनार बे, ए हेतु माटे वळी ॥ टीकाः - इत्यादिवचनेन वरा सर्वांगसुजगा वपुः श्रीः शरीरकांतिः सैव चंद्रिका जगतो जनप्रमोददायित्वात्कौमुदी तयानेश्वरं नक्षत्रनाथं । चंडिकया चंद्रवद्वपुः श्रिया स्त्री जगदाहादकमित्यर्थः वंदे स्तुवे ॥ अर्थः- इत्यादिक वचने करीने सर्वांग सुंदर एवी शरीरनी शोना एज चंद्रिका एटले चंद्रकांति जगत् जनने दर्ष नृत्पन्न करनार बे ए हेतु माटे, ते शरीरनी कांति चंद्रसमान एटले चंद्रमा पोतानी कांतिवने जेम लोकोने आनंद करे छे, तेम जिनराज पो

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