Book Title: Sangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Author(s): Jinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak

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Page 687
________________ -48 अथ श्री संघपट्टकः -- (६१) तानी शरीरनी शोभाव मे ण जगतने आनंद करनार बे एटलो . ते निराजने ग्रंथ कर्त्ता कहे जे जे हुं वंदन करुबुं - टीका:---वर्यं स्तुत्यं अनेकधा बहुधा असुरनरैः दानमानवैः शक्रेण मघो नाचः समुच्चये ॥ एनविदं कल्मषसर्व कथं ॥ दंजारिं शाव्यनिष्टापकं विदुषां विपश्चित्तां सदा सर्वदा सुवचसा मधुरगिरा ॥ अनेकांतरंगप्रदं किल जैनदर्शने त्रैलोक्यवर्त्ति सकलं वस्तुजातं सदसन्नित्यानित्यादिरूपतयाऽनेकांतात्मकमन्युपगम्यते. अर्थः- वळी जिनराज केवा बे ? तो अनेक प्रकारे सुर तथा मनुष्य तथा इंड, तेमणे स्तुति करवा योग्य एवा चकारनो समुच्चय रूपी अर्थ बे, वळी ते जिनराज केवा बे ? तो सर्व पापना नाश करनारा छाने वळी शठपणाने नाश करनारा बे, वळी बे विद्वानने निरंतर मधुर वाणीए करीने अनेकांत मत रूपी रंगने आपनारा बे, जिनदर्शनने विषे त्रण लोकमां रहेली सर्व वस्तुना समूहने नित्यपएं तथा नित्यपणुं इत्यादि अनेकांतरूपपणे वस्तु स्वरूपने अंगीकार करनारा बे. टीका:- तथैव प्रमाणोपपन्नत्वात् नतु परती र्थिक वत्सदेवासदेव वा ॥ नित्यमेवाऽनित्यमेव वेत्यादिरुप तयैकांतात्मकं ॥ तस्य विचारासहस्वात्॥ ततोऽनेकां तेऽनेकांतात्मक वस्तुवादे रंगमनुरागं प्रवृत्ते नृत्पादयति यः स तथा तं ॥ अनेकांतवादशी त्युत्पादकं

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