Book Title: Sangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Author(s): Jinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak

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Page 692
________________ - अब श्री सघ पट्टा - मत्वेन पुरारोहत्वाञ्चपुगंप्राकारस्तस्मिन् अनिजूते नपछुते विमंबिते इत्यर्थः ॥ साधु वेषै लिगिन्निः अर्थः-नगवतनुं शासन ने तेज मिथ्यात्वादि वैरीनासमूहथी रक्षा करवा समर्थ डेए हेतु माटे, तथा बफ मूल माटे शत्रु मात्र कय करवा समर्थ नथी थता ए हेतु माटे उन्नतिवाळो ने माटे दुःखे श्रारोहण करवा योग्य बे, एवो जे जिनमत रूपी पुर्ग एटले किटलो ते लिंगधारीए परानव करे बते एटले विमं. बना पमामे बते एटलो अर्थ ले. टीका:-नस्मकोजस्मराशिग्रहः स एवाईबासन रतानां नानाविध बाधा विधायित्वात् म्लेचस्तु रुष्कवाधिपस्तस्य सैन्यास्त दनुवर्ति चेष्टितत्वात् सैनिकास्तै विवियितिः कामुकैः द्वितीयपके वशीकृत बाह्यदेशेः अथ कथमेवं विधस्यापि जिनमत पुगस्य विषयिनीरपि लिंगिजिरा निन्नव इत्यताह ॥ अर्थः-लस्मराशीनासाग्रह एज अरिहंतना शासनमां आशक्त पुरुषोने नाना प्रकारनी पीमाना करनार , माटे म्लेड जेवो , तेनी सेनामा रहेनारा एटले नस्मगृहरूप म्लेड राजाने अनुसरी रहेनारा, एवा अने विषय बुब्ध एवा लिंगधारीए जिनमत रुपी उर्गनो पराजव को हवे म्लेच राज पदे एम अर्थडे जे, वश कर्या ने बाह्यदेश जेमणे एवा जेनी सेनाना लोक जे एवं म्खेड राज . हवे आ प्रकारनो जिनेश्वर जगवंतना मतरूपी मोटो

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