Book Title: Sangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Author(s): Jinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak

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Page 681
________________ 48 अथ श्री संघपट्टकः मोटा पुरुष कहे बे. एक चक्रवमे रथ चाली शकतो नथी. आंधळो ने पांगळो वनमा एकता मळ्या तो नगरमां पेठा तेन ज्ञान क्रिया एबे एकने विषे दोय तो सिद्धि याय, ते उपर ए अंधपंगू न्याय जावो. आंधळा उपर पांगळो बेठो त्यारे आंधळाना पग ने पांगoानी खोए वे एकठां मळ्यां तो दावानळथी उगरो नगरमां सुखे पेवा. 'टीका:- एवंरूपा श्रपि कुतोपि कदाग्रहगरलोद्गारादुत्सूत्रं प्रज्ञापयोष्यतीत्यत श्राह ॥ शुद्धमार्गप्रकटनपटवः ॥ यथार्थ - श्रुतपथप्रकाशन चतुराः ॥ अलीयसोप्युत्सूत्रपदस्य दारुणं विपार्क विदंतः कथमपि ते तन्न वदंतीत्यर्थः अर्थः- ए प्रकारना ते सुविदित साधु ने तोपण क्यारेक कदाग्रहरूपी केरना कारथी उत्सूत्र प्ररूपता दशे एवो आशंका करी तेनो उत्तर विशेषणद्वारा कदे बे. जे, ते सुविदित साधु केवा बे? तो यथार्थ सिद्धांतना मार्गना प्रकाश करवामां चतुर बे, अतिशे थोकुं पण उत्सूत्र पदनुं जाषण श्राय तो तेनो दारुण विपाक बे एम जाणे बे माटे कोइ प्रकारे परा ते उत्सूत्रने नयी बोलता ए. लो अर्थ बे. टीकाः छतएव कथं चित् कर्मदोषाच्चरण करणाल सेनापि शुद्ध एव मार्गः प्ररूपणीयः ।। ॥ यटुक्कं ॥ हुज्ज दु वसणप्पत्तो, रशीदुबलाई असम्मत्यो || चरणकरणे असुडोसुद्धं मग्गं परू विज्जा |

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