Book Title: Sangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Author(s): Jinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak

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Page 660
________________ (६३६) -4 अथ श्री संघपट्टकः अथवा कलिरेवकलद एव मलं किहंतस्य निलये ॥ तथानाम - निधानं यथा लिंग दर्शने पि लोका वक्तारो भवंति ॥ श्रमी जैना थामी सितांबर जिव इत्यादि ॥ अर्थः- कळीकाळ संबंधी पापनुं घररूप एटले दुःषमा काळनां पापने रहेवानुं स्थानरूप एवा दुःषमा काळवने बीजा का ळनी अपेक्षावने महा पाप बे, ते देतु माटे आ काळमां श्रतिशेज घटती प्रवृत्ति देखवार्थी एम संभावना थाय बे जे, समस्त दुःषमा कानु पाप था दुष्ट मार्गने विषे निवास करी र े. अथवा कली कतां कलह एज जे मल तेनुं घररूप एवो आ लिंगधारी उनों मार्ग तेने विषे नाम एटले खनिधान जेम बाह्ययी लिंग देखे पण लोक एम कहे बे जे, श्र जैनी ने श्री श्वेतांबर निक्कु बेइत्यादि ॥ टीका :- नेपथ्यं रजोहरणादिवेषस्ततो द्वंद्वः ततश्च नामने पश्यतः सुविहितसाधरणान्नामश्रवणान्नेपथ्यदर्शनाच्चाऽर्हन्मार्ग चीतिं तात्विक जिनपथादृश्यं दधाने बिज्राणे || नन्वयं पंयास्तहि जिनमार्ग एव जविष्यतीत्यत श्राह ॥ अर्थ:---- नेपथ्य कहेतां रजोहरणादि वेष, पढी पूर्वे कां ते पदनो द्वंद्व समास करवो, वेश मात्रना नामथी सुविहित मु निना जेवुं एक नाम मात्र सांजळवाथी तथा देखवाथी अरिहंतना 'मार्गनी' जांतिने धारण करतो शास्त्रमां कहेलो जे जिनमत तेनी जांति उपजावतो. ए जगाए श्राशंका करी कहे बे, जे निश्चे ए

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