Book Title: Sangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Author(s): Jinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak
View full book text
________________
-4 अथ श्री संघपट्टकः
(६३७)
लिंगधारी उनो मार्ग एज जिन मार्ग हशे एवी आशंका धाय बे तेनो उत्तर कहे ते जे,
टीका:- अथ चेति प्रतिकूलपक्षांतरद्योतकमव्ययं ॥ नन्वतः परमार्थतः तद निमरेऽईन्मार्गघातुके ॥ श्रयमर्थः ॥ यथाऽ निमराः प्रछन्नघातुकाः स्ववेषेण राजादिघातकर्त्तुमशक्नुवंतो वैषपरावर्त्तनेन राजादिकं व्यापादयंति । तथैतेपि गृहस्थवेषेणाईन्मार्गच्छेदनं तथाविधातुमपारयंतो यतिवेषेण विरुद्धप्ररूपपाचेष्टितादिनाऽईन्मार्गमुच्छिंदतीति जवत्यनिमराः ॥
-
अर्थः- अथ च' एटलो विपरीत पक्षांतरने कहेनारो श्र 'व्यय बे. ए हेतु माटे निश्चे परमार्थथी विचारी जोतां ए लिंगधारीचं अरिहंतना मार्गने घात करनारा बे. तेमां प्रगटपणे श्रावो जावार्थ रह्यो बे जे, जेम राजादिकने बाना मारनारा घातकी पुरुषो ते पोसानो जेबो बे तेवो वेश राखी राजा प्रमुखने मारवा समर्थ नथी यंता त्यारे पोतानो वेष पलटी बीजो वेष करी राजादिकने मारे बे तेन श्रा लिंगधारीन पण गृहस्थना वेषवमे अरिहंतनो मार्ग बेदन कस्बा न समर्थ यया त्यारे यतिनो वेष धारण करी विरूद्ध प्ररूपणा करवी; इत्यादि उपायवमे अरिहंतना मार्गनों उच्छेद करे बे माटे ए घातकी बे.
टीकाः — ततश्च दुरध्व डुरध्ववर्त्तिनोरनेदोपचारादित्थमुपन्यासः ॥ श्रस्मिन् प्राग्वर्णितस्वरूपे डुरध्वे कुमार्गे कारुएयात् मास्मामी बुमन् जमा यस्मिन् कुपथपक इतिदयाध्यवसा

Page Navigation
1 ... 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704