Book Title: Samrat Samprati Diwakar Chitrakatha 045
Author(s): Jinottamsuri, Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 8
________________ गुरुदेव ! फिर मैं गृहस्थ जीवन में रहकर ही अधिकाधिक नियम, व्रत, शील का पालन कैसे करूँ? मुझे मार्गदर्शन दीजिए। मारो हमें मारो ! भूख भी मार रही है तुम भी मारो। इस नारकी जीवन से तो अच्छा है मर जायें। भूख से पिंड छूटे। सम्राट सम्प्रति वत्स देश की राजधानी कौशाम्बी उन्हीं दिनों की घटना है मगध और अंग आदि प्रदेशों में दुष्काल की काली छाया मंडरा रही थी। वत्स देश की राजधानी कौशाम्बी में दुष्काल का भयंकर प्रकोप था। गली-गली में घर-घर पर भिखारी पुकार रहे थे हे दयालु पुरुषों ! तीन दिनों से खाने को अन्न का एक दाना भी नहीं मिला है। भूख से बाल-बच्चे बिलबिला रहे हैं। कोई भी दयालु रोटी का टुकड़ा दे दो। Jain Education International मुनिराज ने कुमार को श्रावक धर्म का स्वरूप समझाया। कुणाल तथा शरतश्री दोनों ने गृहस्थ धर्म अंगीकार कर लिया। भागो, यहाँ से। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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