Book Title: Samrat Samprati Diwakar Chitrakatha 045
Author(s): Jinottamsuri, Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 25
________________ सम्राटसम्प्रति सम्राट् सीधे राजभवन में पहुंचे। पिता एवं माताश्री के चरणों शरतश्री कुछ देर तक विस्मित रही फिर एकदम में प्रणाम किया। माता पुत्र की अपार समृद्धि और वैभव गंभीर हो गई। सम्प्रति ने पूछाविस्मित-सी देखती रही। उसकी आँखें छलछला रहीं थीं माँ ! क्या अपने पुत्र की Vवत्स ! ऐसी बात नहीं परन्तु मुँह से शब्द नहीं निकल रहा था। सम्प्रति ने कहा- । यह समृद्धि देखकर तू है। अपने विश्व विजयी माँ ! देख तेरे पुत्र की यह अपार समृद्धि, ये हजारों सामन्त-राजा, प्रसन्न नहीं है? पुत्र को देखकर कौन यह समूचे आर्यवर्त का साम्राज्य तेरे hanimaditioner मा समान माता प्रसन्न नहीं होगी, चरणों में हाजिर है। परन्तु innar honnanor परन्तु क्या माँ? कोई कमी रह गई? माँ ! समूचे आर्यावर्त 'बेटा ! हजारों युद्ध का साम्राज्य ! अपने दादा- करके, लाखों मनष्यों | परदादाओं के साम्राज्य का संहार करके आखिर से भी विशाल वृहत्तर तूने क्या पाया? साम्राज्य ! क्या और कुछ बाकी रह गया है? पुत्र ! हिंसा से प्राप्त साम्राज्य आन तक किसी के लिए भी सुखकर नहीं हुआ। ब्रह्मदत्त जैसा षट्खंड चक्रवर्ती और अजातशत्रु कणिक जैसा दिगविजयी सम्राट् भी अन्त में इस साम्राज्य को छोड़कर नरक में गये हैं। ANSDO90000 23 Jain Ede For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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