Book Title: Samrat Samprati Diwakar Chitrakatha 045
Author(s): Jinottamsuri, Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 10
________________ बस, इतना ही आहार पर्याप्त है। गुरुदेव ! ये मोदक तो लीजिए। इस कंजूस सेठ से तो कुछ मिलने) की आशा नहीं, क्यों न इन साधुओं से ही माँगू | जैन साधु बड़े दयालु होते हैं। यदि थोड़ा-सा भोजन दे देंगे तो मेरा पेट भर जायेगा। Station International सम्राट सम्प्रति घर के बाहर खड़ा भिखारी यह दृश्य देखकर चकित रह जाता है। भीख माँगना तो भूल गया और सोचता है संसार में कहाँ इन साधुओं का जीवन हैं और कहाँ मेरा जीवन है। कल इसी सेठ ने मुझे बैंतों से मारकर भगाया था और आज यही कंजूस सेठ मुनि को आग्रह करके भक्ति से इतना स्वादिष्ट देव-दुर्लभ भोजन दे रहा है। धन्य है इनका जीवन ! दोनों मुनि आहार- भिक्षा लेकर बाहर भिखारी दौड़कर मुनियों के पास पहुँचा। बोला आते हैं। भिखारी सोचता है मुनि ! तीन दिन से 007 सेठानी प्रार्थना कर रही है गुरुदेव ! थोड़ी खीर तो और ले लीजिए। 祛 नहीं ! अब खप नहीं है। का एक दाना भी नहीं मिला। आप दयालु हैं, अपनी झोली में से थोड़ा-सा भोजन मुझे दीजिए। vof00 8 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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