________________
अध्यात्म के प्रयोक्ता 'मायण्णे असणपाणस्स' यह आगम-उक्ति गुरुदेव का आदर्श सूत्र थी अतः स्वादवृत्ति हेतु वे आहार की मात्रा का अतिक्रमण कभी नहीं करते थे। भोजन परोसने वालों को यह अनुभूति निरन्तर होती रहती थी कि गुरुदेव ऊनोदरी तप का अभ्यास कर रहे हैं। भोजन-वेला में कुछ प्रश्न सदैव उनके मानस में तरंगित रहते थे। वे प्रश्न उन्हीं की काव्यमयी भाषा में पठनीय हैं
क्यों? कैसे? कितना? कहां?, कब भोजन करणीय। भोजन वेला में रहें, ये बातें स्मरणीय।
ये प्रश्न यदि हर व्यक्ति के प्रश्न बन जाएं तो बार-बार या अधिक खाने से होने वाली बीमारियों से बचा जा सकता है।
यहां उनकी अस्वादवृत्ति एवं खाद्य-संयम के कुछ प्रयोगों की संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत की गयी है। ऐसा लगता है लिखा बहुत कम है, अलिखा बहुत रह गया है। आसन-प्राणायाम .. आसन सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया है। योगासन के नियमित अभ्यास से चैतन्य केन्द्रों को जगाया जा सकता है। आसन से नाड़ीसंस्थान में खिंचाव आता है, जिससे उसकी लम्बाई बढ़ती है और कार्यक्षमता विकसित होती है। योगासन स्वास्थ्य-सुरक्षा के जागरूक प्रहरी हैं। इनसे शरीर का प्रत्येक अंग सुडौल और शक्ति सम्पन्न बनता है। योगासन कष्ट-सहिष्णुता के विकास में सहायक बनते हैं। यही कारण है कि निर्जरा के बारह भेदों में काय क्लेश के अन्तर्गत इनका समावेश होता है। जो लोग खाद्य-संयम, स्वादविजय और आत्मनियंत्रण के साथ नियमित रूप से योगासन करते हैं, उनके अस्वस्थ होने का कोई कारण नहीं है। पूज्य गुरुदेव अपना अनुभव व्यक्त करते हुए कहते थे कि यद्यपि यात्रा एवं अन्य कार्य-विस्तार के कारण कभी-कभी आसन-प्राणायाम में नियमितता नहीं रहती लेकिन प्रयोग के आधार पर मैं कह सकता हूं कि आसन-प्राणायाम के जब भी जितने प्रयोग मैंने किए, वे पूरे फलवान रहे हैं।" ज्योतिकिरण में योगासन से होने वाले लाभों की सूची इस प्रकार है* अंगों का सक्रिय संचालन।
अंगों में पर्याप्त लचीलापन।