Book Title: Sadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 333
________________ ३११ साधना की निष्पत्तियां जाएं। जैसे हम पार करें वैसे ही दूसरों को भी पार उतारें, तभी जीवन की सार्थकता है।' व्यक्ति-व्यक्ति में आत्म-जागृति की प्रेरणा देना उनका दैनंदिन का क्रम था। यह क्रम कभी पत्र के माध्यम से होता तो कभी संदेश-संप्रेषण के माध्यम से। कभी प्रवचन की अमृत-धारा से तो कभी काव्य की मधुर स्वरलहरी से। मनोहरी देवी आंचलिया को प्रेषित पत्र की पंक्तियां इसी बात की साक्षी हैं- "शरीर नाशवान है, यह रहे या जाए, कोई चिन्ता नहीं है केवल आत्मा का ध्यान, आत्मा की स्मृति और आत्मा का ही अध्यवसाय बना रहे।" बाह्य चमत्कारों से दूर सदैव आत्मलीन रहना उनका जीवन-व्रत था। गुरुदेव ने अपने आत्मबल का प्रयोग अध्यात्म-शक्ति के संचय एवं उसके विकास में किया था। उन्होंने अपने पुरुषार्थ का प्रयोग जन-जन को अंतरात्मा बनाने में किया। अंतरात्मा और बहिरात्मा में बाह्य रूप से कोई विशेष अंतर नहीं होता क्योंकि दोनों ही जीवन-निर्वाह योग्य सभी क्रियाकलापों को करते हैं लेकिन उनके व्यवहार में बहुत अंतर होता है। एक जागृत जीवन जीता है, दूसरा सुप्त जीवन व्यतीत करता है। पूज्य गुरुदेव अंतरात्मा और बहिरात्मा की भेदरेखा बहुत सुंदर और सरल शब्दों में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- 'ध्यान का प्रयोग अन्तरात्मा है, उसमें नींद लेना बहिरात्मा है। जागरूक रहना अन्तरात्मा है, गलती करना बहिरात्मा है। गलती होने पर कोई कुछ कह दे, उसे सहना अन्तरात्मा है। कहने वाले पर आक्रोश करना बहिरात्मा है। गलती का अनुभव करना अन्तरात्मा है, गलती न स्वीकारना बहिरात्मा है। इस प्रकार न जाने कितनी कसौटियां हैं, जो अन्तरात्मा और बहिरात्मा के बीच साफ-साफ भेद-रेखा खींच सकती हैं।' एक दीपक जैसे लाखों दीपकों को प्रकाशित कर सकता है, वैसे ही पूज्य गुरुदेव की जागृत आत्मा ने लाखों लोगों में आत्मजागृति का संचार किया। आत्मजागृति का बोध देने वाली काव्य की इन पंक्तियों के माध्यम से पूज्य गुरुदेव जन-जन की चेतना को झकझोरना चाहते थे सुंदरं सत्यं शिवं तू, परमुखापेक्षी बना क्यों? सहज आत्मानंदमय तू, विविध कष्टों से सना क्यों?

Loading...

Page Navigation
1 ... 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372