Book Title: Sadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 355
________________ ३३३ साधना की निष्पत्तियां से प्राप्त थी। शरीर के साथ आसक्ति का सम्बन्ध-विच्छेद होने के कारण ही वे प्रतिक्षण चैतन्य के जागरण का अनुभव करते रहते थे। एक केश भी शरीर से अलग करना कितना कष्टप्रद होता है किन्तु गुरुदेव जब अपने केशों का लुंचन करते थे तब उनकी प्रसन्न और स्थिर मुद्रा भेदविज्ञानसाधना की जीवन्त साक्षी बन जाती थी। बनारस में चर्चा के कारण रात्रिकालीन विश्राम काशी विश्वविद्यालय के प्रांगण में ही निर्धारित किया गया। उत्तर प्रदेश की कड़कड़ाती सर्दी में पूरे संघ के साथ गुरुदेव ने विश्वविद्यालय के बड़े-बड़े कमरों में शयन किया। रात भर नींद न आने पर भी गुरुदेव को अतिरिक्त प्रसन्नता की अनुभूति हो रही थी। उस रात का संस्मरण बताते हुए उन्होंने कहा कि रात्रि में सर्दी का काफी परीषह रहा। ठंड को सहने पर भी मन में संतोष था। साधु-जीवन में अनुकूलताएं और प्रतिकूलताएं आती ही रहती हैं । यात्रा में कई स्थानों पर सर्दी का कष्ट रहता है पर बनारस की वह रात हमें सदा याद रहेगी।' विदेह हुए बिना व्यक्ति मौत के भय से ऊपर नहीं उठ सकता। विदेह की साधना में संलग्न साधक प्रतिक्षण इस बात की अनुभूति करता रहता है कि मृत्यु केवल शरीर को नष्ट कर सकती है पर आत्मा तो अजरअमर है। इसी सत्य का अनुभव करके सुकरात, गांधी और विनोबा ने मौत का हंसते-हंसते स्वागत किया। रायपुर में गुरुदेव के पुतले जलाए गए। विरोधियों द्वारा प्रतिक्षण मौत का भय था पर उनके मानस पर भय का कोई प्रकम्पन नहीं हुआ। जब तक शब्द, रूप, गंध आदि इंद्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति रहती है, तब तक भेदविज्ञान की दिशा में प्रस्थान नहीं हो सकता। शब्द, रूप आदि इंद्रिय-विषय आत्मतत्त्व से भिन्न पौद्गलिक हैं, जड़ हैं, यह अवबोध होते ही साधक की दिशा बदल जाती है। पूज्य गुरुदेव ने आयारो के सूक्त का अनुवाद करते हुए विदेह की स्थिति का मार्मिक चित्र खींचा जिसने शब्दादिक विषयों से भिन्न स्वयं को जान लिया उसने मूर्छा-संग त्याग

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