Book Title: Sadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 367
________________ साधना की निष्पत्तियां साधना थे। वे जड़कर्म नहीं, चेतन पुरुषार्थ थे। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को अध्यात्म की प्रयोगशाला बनाया था । उनका संवाद, चिंतन और कर्म सत्य की साधना से जुड़ा था। इसीलिए उनके जीए गए संदर्भों में पारदर्शिता के साथ सन्तता झांकती थी । उनका विश्वास उपदेश में नहीं, आचरण में था। उनका सम्पूर्ण वाड्मय अध्यात्म की गीता बनकर हम सबको संबोध दे रहा है। उनकी करुणा से भीगी चेतना ने जो कुछ पाया, उसे सिर्फ बटोरा ही नहीं अपितु सबके आत्म-कल्याणार्थ हर पल सबमें बांटा भी । ३४५ 1 गुरुदेव तुलसी इस सदी के अध्यात्म- प्रयोक्ता संत थे । उनका सधा हुआ मन, निष्कामकर्म, दूरदर्शी सोच स्वयं में एक अंत:प्रेरणा थी । वे भीड़ में भी अकेले रहते थे और अकेले में भी सबके कल्याण की बात सोचते थे। उनकी अध्यात्मचेतना ने उन सबको जगाया था, जो धूप चढ़ जाने के बाद भी सिर्फ यह सोचकर सोए रहते हैं कि अभी दस्तक तो किसी ने दी ही नहीं । गुरुदेव तुलसी प्रवक्ता थे, अनुभवों की भाषा में जीया गया सत्य बोलते थे । वे प्रचारक थे, स्वस्थ समाज की संरचना में विश्वास रखते थे । वे अनुशास्ता थे, व्यक्ति में नहीं, अनुशासन, मर्यादा और संयम में आत्मविकास की स्वतंत्रता देखते थे। पूज्य गुरुदेव में बालक सी सहजता, युवा सी ऊर्जा, प्रौढ़ सी चिन्तनप्रवणता और वृद्ध सी अनुभवशीलता थी इसीलिए वे जहां होते थे, उनकी साधना स्वयं सुरक्षा कवच बन जाती थी, बुराइयों का तमस कभी उनके आस-पास प्रवेश नहीं पा सकता था । . अनेक परिदृश्यों में गुरुदेव के जीवन की समीक्षा इस बात साक्षी है कि वे निर्विशेषण संत थे । अध्यात्म उनका साध्य था, अध्यात्मपथ पर संचरण ही उनकी साधना थी । ऐसे साधना के शलाकापुरुष को कोटिशः नमन ।

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