Book Title: Sadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 365
________________ साधना की निष्पत्तियां गुरुदेव तुलसी भविष्यद्रष्टा थे, यह बात मानवजाति के लिए दिये गये उनके अवदानों से जानी जा सकती है। दिव्यदर्शन या भविष्यदर्शन के आधार पर किए गए उनके सभी कार्यों का चर्मचक्षुओं द्वारा भरपूर विरोध हुआ क्योंकि जो केवल वर्तमान को देखते हैं, वे भविष्य में होने वाली घटना को स्वीकार करने का साहस नहीं रख पाते। वे तो केवल अतीत और वर्तमान का अनुसरण करते हैं पर नया आविष्कार भविष्यदर्शन की क्षमता से ही संभव है । यही कारण है कि गुरुदेव हमेशा नई लकीरें खींचने का साहस करते रहे। चाहे वह नया मोड़ हो या अणुव्रत, चाहे वह मुमुक्षु श्रेणी की स्थापना हो या समणदीक्षा की परिकल्पना- इन सब अभियानों का प्रारम्भ विरोध से हुआ पर परिणति में सभी ने उनकी दूरदर्शिता का लोहा माना और मुक्त कण्ठ से उनके अवदानों की प्रशंसा की। ३४३ एक महान् साधक में उपर्युक्त क्षमताओं, विशेषताओं का पाया जाना स्वाभाविक है। ये असाधारण क्षमताएं ही महापुरुषों को सामान्य से ऊंचा एवं विशिष्ट बनाती हैं अतः हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि उनमें कहीं कुछ विशेष था, जो सबमें नहीं होता । अतीन्द्रिय चेतना की रश्मियों से आवेष्टित आभावलय असंभव को संभव बनाता है, कठिन को सरल बनाता है, अज्ञात को ज्ञात करता है और अप्राप्त को प्राप्त करता है। पूज्य गुरुदेव की निर्मल साधना के प्रभाव से उनकी चेतना के केन्द्र और परिधि में अतीन्द्रिय रश्मियों का दिव्य प्रकाश प्रकट हो गया था । उनकी जागृत चेतना का प्रभाव जन-साधारण के लिए चमत्कार हो सकता है पर गुरुदेव तुलसी के लिए यह सब सहज था । उपसंहार पूज्य गुरुदेव की साधना गिरि-कंदरा में बैठे किसी योगी की साधना नहीं अपितु व्यावहारिक एवं परिस्थितियों में अप्रभावित रहने की साधना थी । वे जीवन के हर उतार-चढ़ाव में स्थितप्रज्ञ बने रहे, इसलिए अध्यात्म उनके जीवन से मुखर होकर प्राणवान् बन गया। महात्मा गांधी कहते थे कि सच्चा साधक वही है, जो विपरीत परिस्थितियों में चट्टान की भांति अडिग रहे । पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी प्रकृति एवं पुरुष के हर विरोध को विनोद मानकर सहते रहे, यह उनकी साधना का सर्वाधिक उज्ज्वल पक्ष था ।

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