Book Title: Sadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 339
________________ ३१७ साधना की निष्पत्तियां प्रारम्भ को ही मैं अपना जन्म-दिन मानता हूं।' संयम-साधना में अनुभूत आनंद उन्हीं की भाषा में पठनीय है- 'संयम की साधना से आनंद मिलता है, पदार्थ का आकर्षण छूटता है, तृप्ति का अनुभव होता है और संकल्पविकल्पों से छुटकारा मिलता है। जब तक संयम में रस नहीं आता, इसकी साधना बहुत कष्टप्रद प्रतीत होती है। इसमें रस आ जाए तो अन्य सभी रस फीके हो जाते हैं।' काव्य की इन पंक्तियों में भी उन्होंने इसी सत्य को उजागर किया है अपने से अपना सुनियंत्रण। सच्चे सुख को है आमंत्रण॥ हर क्षण जागरूक व्यक्ति ही संयम की साधना कर सकता है और दूसरों को उस दिशा में प्रस्थित कर सकता है। गुजरात यात्रा के दौरान पूज्य गुरुदेव के पैरों में मोमायमोरा गांव में रण की मिट्टी गहरी चिपक गई। मिट्टी साफ करने हेतु एक मुनि टोपसी भरकर पैरों पर पानी गिराने लगे। पूज्य गुरुदेव ने तत्काल उसे टोकते हुए कहा- 'इस प्रकार टोपसी से पानी गिराकर पैर साफ करने से कितना पानी लगेगा? टोपसी से चुल्लू भरकर पानी गिराने से बहुत थोड़े पानी से पैर साफ हो जाएंगे। पानी का अपव्यय पर्यावरण को प्रदूषित करता है।' घटना छोटी-सी है पर इससे पूज्य गुरुदेव की जागरूकता एवं संयम के प्रति असीम निष्ठा व्यक्त हो रही है। पर्यावरणप्रदूषण की सारी समस्या संयम के द्वारा ही समाहित हो सकती है क्योंकि सृष्टि का संतुलन संयम के आधार पर ही टिका हुआ है। . संयम का सम्बन्ध वस्तु के भाव या अभाव से नहीं, आकांक्षा और इच्छाओं के अभाव से है। जिसकी आकांक्षाएं समाप्त हो जाती हैं, वही व्यक्ति संयम के राजमार्ग पर प्रस्थान कर सकता है। वस्तु प्राप्त न होने पर सहज संयम हो जाए वस्तुत: वह संयम नहीं है। संयम फलित होता है इच्छा का निरोध करके प्राप्त वस्तु को अस्वीकार करने से। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में पदार्थ उपलब्ध होने पर भी उसके भोग की इच्छा ही न जगे, यह संयम का उत्कृष्ट रूप है। पूज्य गुरुदेव का खाद्य-संयम इतना पुष्ट था कि वह न तो मनुहारों से टूटता था और न मनोबल की कमी से। एक बार पूज्य गुरुदेव आहार करवा रहे थे। प्रतिश्याय होने के कारण उन्होंने बहुत हल्का

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