Book Title: Sadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 294
________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ज्ञाता-द्रष्टाभाव द्रष्टाभाव का विकास साधक जीवन की महानतम उपलब्धि है । किसी भी वस्तु या घटना के प्रति अपने प्रिय या अप्रिय संवेदन को नहीं जोड़कर घटना को केवल घटना के रूप में जानना - देखना ज्ञाता - द्रष्टाभाव है। आचार्य महाप्रज्ञ का मानना है कि ध्यान की समूची प्रक्रिया केवल जानने और देखने की प्रक्रिया है । जानने और देखने का अभ्यास जितना प्रबल होगा, ध्यान की स्थिति उतनी ही सुदृढ़ हो जाएगी। सामान्यतः व्यक्ति कभी राग - चेतना में जीता है, कभी द्वेषपूर्ण भावों से प्रभावित होता है । इन दोनों के मध्य जीने वाला द्रष्टा होता है । द्रष्टा बनने के बाद राग और द्वेष की ग्रंथियां स्वतः खुलने लगती हैं । इन्द्रियां अपने विषयों में रमण करती हुई भी व्यक्ति को विकृत नहीं कर सकतीं। यही कारण है कि द्रष्टा सभी प्रकार की कामनाओं एवं आकांक्षाओं से विरत हो जाता है । स्वामी विवेकानन्द एक रूपक के माध्यम से द्रष्टाभाव की व्याख्या करते हैं- 'हम चित्र से अपना तादात्म्य नहीं जोड़ते क्योंकि चित्र असत् है, अवास्तविक है, हम जानते हैं कि यह एक चित्र मात्र ही है। वह न हम पर कृपा कर सकता है, न हमें चोट पहुंचा सकता है। इसका रहस्य. क्या है ? अनासक्ति ही इसका रहस्य है । अतएव साक्षी बनो, द्रष्टा बनो ।' मध्यस्थ रहने के लिए प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित यह श्लोक अनुप्रेक्षा का कार्य कर सकता है अचेतनमिदं २७२ दृश्यमदृश्यं चेतनं ततः । क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि, मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः ॥ दृष्टि की स्पष्टता होने के बाद ही ज्ञाता-द्रष्टा चेतना का विकास सम्भव है। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में द्रष्टा मन के स्तर पर नहीं जीता अतः वह घटने वाली हर अनुकूल-प्रतिकूल घटना के साथ स्वयं को नहीं जोड़ता । वह जानता है, देखता है पर परिस्थिति एवं पदार्थों को भोगता नहीं । सुख-दुःख एवं उतार-चढ़ाव के निमित्त उपस्थित होने पर भी उसके संवेदनों से बच जाता है। परमार्थ पंचसप्तति में पूज्य गुरुदेव ने इसी तथ्य को काव्य में निबद्ध कर दिया है अज्ञानी जन भोगता, घटना को दिन-रात । पर ज्ञानी जन जानता, घटना को साक्षात् ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372