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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२०० प्रकोप के कारण सोने, बैठने, बोलने में अवरोध होने लगा। उपचार से कोई लाभ नहीं हुआ। सर्दी के दिनों में जब भी जुखाम लगता या कफ बढ़ जाता तो उनकी श्वास-नलिका प्रभावित हो जाती थी। डॉक्टरों ने परामर्श दिया'आप एलोपैथी गोली का प्रयोग करवा लिया करें'। गुरुदेव ने फरमाया'यह प्रतिबद्धता अच्छी नहीं है। किसी भी चीज के लिए विवशता साधना का पलिमंथु है। रोग होना शरीर का धर्म है पर इसे हमेशा दवा लेकर परवश बनाना मुझे पसंद नहीं । व्यक्तित्व की जीवटता इसी में है कि जीवन भर स्वस्थ होकर काम करते रहें।' श्वास के लिए उपयोगी बतायी गयी एलोपैथिक दवा के लिए गुरुदेव ने इन्कार कर दिया। काफी कष्ट एवं कठिनाई का अनुभव हुआ पर गुरुदेव के मन पर उसका कोई प्रभाव नहीं
हुआ।
पूज्य गुरुदेव के हाथों में अनेक अंतेवासी शिष्य दिवंगत हुए पर गुरुदेव के मानस पर कोई असर नहीं हुआ। वे स्वयं इस सत्य को स्वीकार करते थे- 'कांस्य का बर्तन स्नेह आदि से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मोहाविल संसार में रहता हुआ भी मैं निर्लिप्त रहने का प्रयास करता हूं तथा दूसरों को भी इसकी प्रेरणा देता रहता हूं।' सन् १९६२ का घटना प्रसंग है। मातुश्री वदनाजी गुरुदेव के उपपात में बैठी सेवा कर रही थीं। विहार का समय निकट आ रहा था। वे अपने आपको मातृहृदय के स्नेह एवं पुत्रमोह से विलग नहीं कर सकीं। उन्होंने विगलित हृदय से गुरुदेव को प्रार्थना की- 'गुरुदेव! ग्रीष्म ऋतु है। अतः लम्बे विहार करके शरीर के साथ अन्याय न करें।' गुरुदेव ने स्मित हास्य से मातुश्री को समझाते हुए कहा'क्या आप नहीं जानतीं कि गौतम स्वामी ने भगवान् के शरीर पर मोह किया, उससे उनको केवलज्ञान आते-आते रुक गया। आपको भी मोह छोड़ना है। यदि कभी सताए तो इसे सत्स्वाध्याय या सच्चिंतन से भगा देना है। यह प्रतिबोध सुनकर मातुश्री की आंखों में हर्ष एवं स्नेह के आंसू बहने लगे। पर पास में खड़ा समुदाय गुरुदेव के निर्लिप्त एवं वीतरागी मानस के प्रति प्रणत हुए बिना नहीं रह सका।
प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी उनकी इस विशेषता से मंत्रमुग्ध थे। पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व का आकलन वे इन शब्दों में करते हैं- 'मैं