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न रागद्वेषमोहाश्च, यस्याप्तः सःप्रकीर्त्यते।।6।।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार) जो भूख, प्यास, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, आश्चर्य, अरति, खेद, शोक, निद्रा, चिन्ता, स्वेद इन 18 दोषों से रहित होता है, उसे आप्त अर्थात वीतराग देव कहते हैं। सर्वज्ञ का लक्षण
तज्जयति परं ज्योतिः, समं समस्तैरनन्तपर्यायैः । दर्पणतल इव सकला, प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र।।1।।
(अमृतचन्द्र देव, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय) जिसमें दर्पण के तल की तरह समस्त पदार्थों का समूह अतीत, अनागत और वर्तमान काल की समस्त पर्यायों सहित प्रतिबिम्बित होता है, उस सर्वोत्कृष्ट शुद्ध चेतनारूप प्रकाश की जय हो। हितोपदेशी का लक्षण
परमेष्ठी परंज्योति-विरागो विमलः कृति। सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः, सार्वःशास्तोपलाल्यते ।।7 ||
(रत्नकरण्डश्रावकाचार) जो इन्द्रादिक से पूज्य, परमपद में स्थित, अक्षय केवलज्ञान सहित, राग-द्वेषादि भावकर्म रहित, घातिया कर्म रूप द्रव्यकर्म रहित, कृतकृत्य, सत्यार्थ देव के प्रवाह की अपेक्षा आदि, अन्त, मध्य रहित, सर्व का ज्ञाता–दृष्टा और सब जीवों का हितकारक होता है। वह हितोपदेशी कहलाता है। शास्त्र का स्वरूप
परमागमस्य जीवं, निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां, विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।2।।
(अमृतचन्द्र देव, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय) यहाँ गुणों को नमस्कार किया है। जन्मान्ध पुरुषों के हस्ति विधान का निषेध करने वाला, समस्त नयों से प्रकाशित, वस्तुस्वभाव का विरोध दूर करने
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