Book Title: Ratnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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ठक्कुर-फेरू-विरचित ५. अगस्तीय रत्नपरीक्षा-अगस्तीय रत्नपरीक्षा वास्तव में अगस्ति मत का सार है । पर विस्तार में कहीं कहीं नई बातें आ गई हैं । अभाग्यवश इसका पाठ बहुत भ्रष्ट और अशुद्ध है।
. उपर्युक्त ग्रंथों के सिवाय रत्नसंग्रह, अथवा रत्नसमुच्चय, अथवा समस्तरत्नपरीक्षा २२ श्लोकों का एक छोटा सा ग्रंथ है। लघुरत्नपरीक्षा में भी २० श्लोक हैं, जिनमें रत्नों के गुण दोषों का विवरण है । मणिमाहात्म्य में शिव पार्वती संवाद के रूप में कुछ उपरत्नों की महिमा गाई गई है।
६. फेरू रचित रनपरीक्षा-ठकुर फेरूर चित रत्नपरीक्षा का कई कारणों . से विशेष महत्व है । पहली बात तो यह है कि यह रत्नपरीक्षा प्राकृत में है। ठक्कुर फेरू के पहले भी शायद प्राकृत में रत्नपरीक्षा पर कोई ग्रंथ रहा हो, पर उसका अभी तक पता नहीं। दूसरी बात यह है कि ग्रंथकार श्रीमाल जाति में उत्पन्न ठक्कुर चंद के पुत्र ठकुर. फेरू का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३१६) के खजाने और टक्साल से निकटतर सम्बन्ध था। उसका स्वयं कहना है कि उसने बृहस्पति, अगस्त्य और बुद्धभट्ट की रत्नपरीक्षाओं का अध्ययन करके और एक जौहरी की निगाह से अलाउद्दीन के खजाने में रत्नों को देख कर, अपने ग्रंथ की रचना की (३-५). उसके इस कथन से यह बात साफ मालूम पड़ जाती है कि कम से कम ईसा की १३ वीं सदी के अंत में बुद्धभट्ट की रत्नपरीक्षा, वराहमिहिर के रत्नों पर के अध्याय और अगस्तिमत, रत्नशास्त्र पर अधिकारी ग्रंथ माने जाते थे और उनका उपयोग उस युग के जौहरी बराबर करते रहते थे । जैसा हम आगे चल कर देखेंगे, ठक्कुर फेरू ने रत्नपरीक्षा की प्राचीन परम्परा की रक्षा करते हुए भी तत्कालीन मूल्य, नाप, तोल तथा रत्नों के अनेक नए स्रोतों का उल्लेख किया है जिनका पता हमें फारसी इतिहासकारों से भी नहीं चलता।
. प्राचीन रत्नशास्त्रों में खानों से निकले रनों के सिवाय मोती और मूंगा भी शामिल है जो वास्तव में पत्थर नहीं कहे जा सकते । साधारणतः जवाहरात के लिए रत्न और. मणि और कभी कभी उपल शब्द का व्यवहार किया गया है । संस्कृत साहित्य में रत्न शब्द का व्यवहार कीमती वस्तु और कीमती जवाहरात के लिए हुआ है । वराहमिहिर (बृ० सं० ८०१२) के अनुसार रत्न शब्द का व्यवहार हाथी, घोड़ा, स्त्री इत्यादि के लिए गुणपरक है, रत्नपरीक्षा में इसका व्यवहार केवल कंचनादि रनों के लिए हुआ है । मणि शब्द का व्यवहार कीमती रत्नों के लिए हुआ है, पर बहुधा यह शब्द मनिया, गुरिया अथवा मनके लिए भी आया है।
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