Book Title: Pundit Puja Author(s): Gyanand Swami Publisher: Bramhanand Ashram View full book textPage 4
________________ मुक्ति मार्ग पर चलता है और स्वयं परमात्मा होता है इसका सुन्दर विवेचन संक्षेप में गूढ़ रहस्य अन्तर शोधन का मार्ग इस पंडित पूजा में बताया है जो सभी मुमक्षु जीवों को अनुकरणीय है। मंगलाचरण ध्रुव तत्व शुद्धात्मा, सिद्ध स्वरुप ऊँ कार। करता निज अनुभूति युत, वंदन बारम्बार॥ ज्ञानी सम्यग्दृष्टि का, पूजा - विधि विधान। जैसा जिनवर ने कहा, जिनवाणी प्रमाण || सद्गुरु तारण तरण ने, कहा ज्ञान प्रधान। जो समझेंगे भव्य जन, पावें पद निर्वाण || ॐ नमः सिद्धं - :श्री पंडित पूजाजी:प्रश्न- ज्ञान मार्ग के साधक का लक्ष्य और इष्ट क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु तारण स्वामी गाथा कहते हैं.... गाथा (१)- (२) उवंकारस्य अर्धस्य, अर्ध सद्भाव सास्वतं । विन्द स्थानेन तिस्ठन्ते, न्यानं मयं सास्वतं धुवं ॥१॥ निरु निश्चैनय जानन्ते, सुद्ध तत्व विधीयते। ममात्मा गुनं सुद्ध, नमस्कार सास्वत धुवं ॥२॥ अन्वयार्थ - (उर्वकारस्य) परमात्म स्वरुप - सिद्ध परमात्मा (ऊर्धस्य) लोक के अग्र भाग में (ऊर्धसभाव) अपने उर्धगामी स्वभाव - अशरीरी ध्रुव स्वभाव में (सास्वतं) अजर - अमर - अविनाशी (विंद स्थानेन) परमानन्दमयी निज स्वभाव - सानन्द निर्विकल्प समाधि में विराजमान है। (न्यानं मयं) ज्ञानमयी- ज्ञानमात्र चेतन सत्ता में (शाश्वतं ध्रुवं) निश्चय से अटल-अचल है। (निरुनिश्चैनय) शुद्ध निश्चय नय से, द्रव्य स्वभाव से (जानन्ते) जानते हैं (सुद्ध तत्व) शुद्धात्म तत्व (विधीयते) परिपूर्ण शुद्ध, सिद्ध होने की विधि है (ममात्मा) मेरा आत्म स्वभाव (गुनं) और गुण भी (सुद्धं) शुद्ध हैं (नमस्कारं) नमस्कार करता हूँ (सास्वतं धुवं) उस शाश्वत ध्रुव सिद्ध स्वरुपी, निज शुद्धात्मतत्व को। विशेषार्थ - आत्मा ऊँकारमयी पंच परमेष्ठी पदधारी शुद्ध - बुद्ध श्रेष्ठ ज्ञान स्वरुप परमात्मा है। जो जीव अपने शुद्ध स्वभाव में लीन होकर ऊर्ध्वगमन करते हैं, वे त्रिकाली चैतन्य स्वरुप शाश्वत स्वभाव में लीन होकर अर्थात् स्वभाव का वरण कर निर्विकल्प मोक्ष सुख में सदा विराजते हैं, वे सिद्ध परमात्मा ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव में लीन रहते हैं। अनुपम - अविनाशी पद के धारी सिद्ध परमात्मा केसमान ही अत्यन्त महिमावान मेरा भी शुद्धसत्स्वरुप सद्गुरु की भक्ति प्रबल, वीतराग आधार । आगम से निर्णय किया, किया इसे स्वीकार।। ज्ञानानन्द स्वभाव ही, इष्ट और हितकार । अपने ज्ञानोपयोग हित, लिखू बुद्धि अनुसार ॥Page Navigation
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