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कशमकश याद ने मुझे परेशान कर दिया तो? मेरा मन चंचल हो उठा तो? कहीं मैं बीच से ही वापस न लौट जाऊँ...?'
हँ, आँ... तेरे मन को पूरी तरह परख ले! प्रेमभरी पत्नी का विरह तू सह पाएगा! साथ ही साथ माँ का विचार कर ले, इधर वह तेरे विरह में और उधर तू माँ की याद में... व्याकुल तो नहीं हो जाएगा न?
'मन व्याकूल तो होगा... पर मैं मन पर काबू पा लूँगा! मैं मन को समझा लूँगा... वैसे तो पिताजी का भी कितना प्यार है मुझ पर! मैं उनसे जब विदेश जाने की बात करूँगा... उन्हें आघात भी लगेगा! पर मुझे उन्हें समझाना होगा!'
पर वे नहीं मानेंगे तो? तो क्या? मैं खाना-पीना छोड़ दूँगा... मैं अब चंपा में नहीं रह सकता! मेरा दिल ऊब गया है अब यहाँ से! मुझे सागर बुलावा दे रहा है...! सिंहलद्वीप मुझे पुकार रहा है!'
'अमर, तू पूरी तरह से सोच लेना। बराबर दृढ़तापूर्वक से विचार कर लेना। तेरी कहीं हँसी न हो जनता में | उसका भी विचार कर लेना। और, जब तेरे विदेश जाने की बात राजा-रानी जानेंगे तब वे भी तुझे नहीं जाने देंगे। वे तुझे जरूर रोक लेंगे! कहीं तू अनुनय से, लाज से, शरम से, भावकुता से तेरा संकल्प न बदल दे! ज़रा सोच ले, एक बार फिर गौर से!'
'नहीं, बिल्कुल नहीं... मेरा निर्णय अंतिम रहेगा, मेरू जैसा अडिग रहेगा। अब मुझे कोई नहीं रोक सकता! मैं ज़रूर जाऊँगा! मैं नहीं रूक सकता।'
और वह विचारों के आवेग में पलंग पर से खड़ा हो गया। रजत के प्याले को ठोकर लगी। प्याला गिर गया... आवाज हुई तो सुरसुंदरी जग गयी...| ___ 'अरे, आप तो अभी जग रहे हैं? क्यों क्या हुआ? आप खड़े क्यों हुए?' सुरसुंदरी एक ही सांस में खड़ी हो गयी पलंग पर से!
'नहीं, यों ही खड़ा हुआ था, झरोखे में जाकर बरसती चाँदनी का आह्लाद लेने की इच्छा हो आयी।'
'चलिए, मैं भी आती हूँ...। सुरसुंदरी भी अमरकुमार के साथ झरोखे में पहुँची। दोनों ने आकाश के सामने देखा।
'आप कुछ परेशान से नज़र आ रहे हो...। क्या चिंता है? आपको अभी तक नींद क्यों नहीं आयी? रात का दूसरा प्रहर पूरा होने को है!'
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