Book Title: Prit Kiye Dukh Hoy
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 329
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१७ आंसुओं में डूबा हुआ परिवार 'क्यों खामोश हो गये? यह पुत्र तुम्हारा ही है... क्या तुम उसकी माँ नहीं हो? बोलो...न?' गुणमंजरी सुरसुंदरी के निकट सरक आयी। __सुरसुंदरी ने गुणमंजरी के निर्दोष... सरल चेहरे की तरफ देखा... उसकी भोली-भाली आँखों में झाँका... उसने कहा : ___ 'मजंरी, पुत्र को माताजी को सौंपकर आ जा, कुछ समय के लिए तेरे साथ कुछ बातें करनी है।' गुणमंजरी पुत्र को धनवती के पास छोड़ आयी। ___ 'मंजरी, बेटा तो मेरा ही है...। मैं उसकी दूसरी माँ हूँ। परंतु यहाँ पर तेरे जाने के बाद एक नयी परिस्थिति पैदा हो गयी है।' 'क्यों, क्या हुआ? गुणमंजरी का मासूम मन आशंका से काँप उठा। 'एक ज्ञानी गुरूदेव का परिचय हुआ...' 'यह तो अच्छा ही हुआ। 'मेरे पिताजी ने उनसे मेरा पूर्वभव पूछा...गुरूदेव ने हमारे दोनों के पूर्वभव कह बताये। 'क्या कहा गुरूदेव ने?' सुरसुंदरी ने अपना और अमरकुमार का पूर्वभव कह सुनाया। गुणमंजरी रसपूर्वक सुनती रही। 'यह पूर्वभव जानने के पश्चात हम दोनों के हृदय में संसार के प्रति वैराग्य प्रगट हुआ है। वैराग्य तीव्र बना है, और हम दोनों गृहत्याग करके चारित्र के मार्ग पर जाने के लिए तैयार हुए हैं। बस, तेरी ही प्रतीक्षा थी। तू आ जाए... बाद में तुझे सारी बातें करके हम...' 'नहीं, नहीं... नहीं... यह कभी नहीं हो सकता!' गुणमंजरी एकदम बावरी-सी हो उठी। उसकी आँखों से आँसुओं का बाँध टूट गया। उसने अपना चेहरा सुरसुंदरी की गोद में छिपा दिया। सुरसुंदरी ने अमरकुमार के सामने देखा । अमरकुमार की आँखे बंद थी। वह गहरे चिंतन में डूब गया था। उसके चेहरे पर शांति थी... तेज था...। 'तो फिर मैं भी तुम्हारे साथ ही चारित्र लूँगी!' गुणमंजरी बोली! सुरसुंदरी ने अपने उत्तरीय वस्त्र से उसकी आँखें पोंछी और कहा : For Private And Personal Use Only

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