Book Title: Prit Kiye Dukh Hoy
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 314
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहचिंतन की ऊर्जा ३०२ ALGANJ.,मा.. .. जाI Lutar.sMastitutimes ४४. सहचिंतन की ऊर्जा || HTAYxxxmerierracara-MENEkxerriSS ...P-NCER KRIT 'आज सुबह में श्री नवकार मंत्र का ध्यान पूर्ण होने के पश्चात् स्वाभविकतया आत्मचिंतन प्रारंभ हो गया है। आत्मा का अनंत भूतकाल... असीम भविष्य... जन्म... मृत्यु जीवन इन सब पर विचार चले आ ही रहे हैं...।' 'ये तेरे विचार आजकल के कहाँ हैं...? बरसों के हैं। तू बरसों तक ऐसे विचार करती रही है... और इसी चिंतन ने तो तुझको जीवन जीने का बल दिया है, जोश दिया है। तेरे अति प्रिय विचार हैं ये सारे!' । ___ 'चंपानगरी में आने के पश्चात् ये विचार कभी-कभार ही आते हैं। संसार के सारे सुख मिल गये हैं... न? पिता के वहाँ भी सुख और पति के वहाँ भी सुख ही सुख! पति का पूरा सुख... संपत्ति की भी कमी नहीं...! स्नेही-स्वजनों का सुख और नीरोगी देह का भी सुख है! मेरे पास कौन-सा सुख नहीं है?' 'एक सुख नहीं है...!' अमरकुमार ने कसक के साथ कहा। 'उस सुख की तमन्ना या इच्छा भी नहीं है भीतर में! वह सुख तो बंधन बन जाता है। वह बंधन नहीं है इसलिए तो श्रेष्ठ सुख को प्राप्त करने का रास्ता सहज रूप से खुला है!' __'यह कैसे? स्त्री के जीवन में संतान का सुख तो कितना महत्त्व रखता है? संतान की इच्छा तो स्त्री में प्रबल होती है न?' 'पर मुझे वैसी इच्छा ही नहीं है न?' 'चुंकि तेरे में जिनमंदिरों के निर्माण की, जिनप्रतिमाओं के निर्माण की इच्छाएँ प्रबल हैं न? सुपात्रदान की और अनुकंपादान की इच्छाएँ तीव्र है न? इन इच्छाओं की तीव्रता ने उस इच्छा को पैदा ही नहीं होने दिया है!' __ 'सही बात है... आपकी! मैं एक-एक नवनिर्मित जिनालय देखती हूँ, एकएक नयनरम्य जिनप्रतिमा देखती हूँ और मेरा-रोम रोम नाच उठता है... हृदय आनंद से छलक उठता हे!' 'परमात्मतत्त्व के साथ तेरी आंतरिक प्रीत जुड़ गयी है न?' 'और... अब तो मन उस परमात्मतत्त्व के साथ अभेद मिलन के लिए तरस रहा है। परमात्मा की आज्ञा का यथार्थ पालन करने के मनोरथ पैदा हो रहे हैं... कब वह अवसर आए कि जिनाज्ञाओं का समुचित पालन कर सकें!' For Private And Personal Use Only

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