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अकेला हूँ।” “मैं आत्मा को शुद्ध, ज्ञानस्वरूप, शाश्वत, स्वाधीन और अतीन्द्रिय महापदार्थ स्वीकार करता हूँ।" शुद्धोपयोगी विचारता है “जीव के लिए, देह या संपत्ति, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र अविनाशी नहीं है, चेतनायुक्त भावात्मक (उपयोगात्मक) आत्मा ही अविनाशी है। फलस्वरूप गृहस्थ या मुनि इस प्रकार समझकर उत्कृष्ट आत्मा को ध्याता है, तो वह मोहगांठ (आत्मविस्मृति रूपी गाँठ) को नष्ट कर देता है और श्रमण अवस्था में साधक राग-द्वेष-मोह को नष्ट करके अविनाशी सुखों को प्राप्त कर लेता है। आचार्य अन्त में कहते हैं: “मैं ज्ञायक आत्मा को स्वभाव से जानकर ममत्व को त्यागता हूँ और निर्ममत्व में स्थित होता हूँ।"
प्रवचनसार (खण्ड-2)
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