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शुद्धोपयोग की साधना
प्रारम्भ में यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि शुद्धोपयोग की साधना पूर्णतया व्यक्तिगत होती है। समाज के लिए पर की अपेक्षा है तो शुद्धोपयोग के लिए स्वाश्रितता होती है। धीरे-धीरे जब व्यक्ति को पराश्रितता के कष्टों का अनुभव होता है, तो वह स्व की ओर मुड़ता है। यहीं से शुद्धोपयोग की साधना का प्रारंभ है। प्रवचनसार में 'मैं' के आधार से शुद्धोपयोग की बात कही गई है। व्यक्ति जब सजग होता है तो कहता है : मैं न शरीर (हूँ), न मन' (हूँ), और न ही वचन (हूँ), न उनका कारण (हूँ), न कर्ता (हूँ), न करानेवाला (हूँ), न ही करनेवाले का अनुमोदक (हूँ) । (68) शुद्धोपयोग की साधना में पूर्णतया कर्मों से छुटकारा ध्येय होता है। शुभ परिणाम से पुण्य कर्म आता है और अशुभ परिणाम से पाप कर्म। किन्तु यहाँ यह नहीं भूलना चाहिये कि पुण्य कर्म पराश्रित, अड़चनों सहित तथा उससे प्राप्त सुख-सन्तोष विनाशवान होता है। शुद्धोपयोग ऐसे सुख को जीवन में लाना चाहता है जो स्वआश्रित हो, अनुपम हो, अनन्त और शाश्वत हो। इसलिए शुद्धोपयोगी की साधना की दिशा स्वोनमुखी हो जाती है। शुद्धोपयोगी की समझ में यह बात दृढ़ हो जाती है कि रागयुक्त जीव कर्मों को बाँधता है, किन्तु राग-रहित जीव कर्मों से छुटकारा पा जाता है। जो परिणाम परापेक्षी नहीं है वह दुःख के नाश का कारण कहा गया है। शुद्धोपयोग की साधना ध्यान केन्द्रित होती है। ध्यान को जीवन में लाने के लिए 'मैं'का उपयोग करके आचार्य कहते हैं- “मैं अशुभोपयोग से रहित हूँ, शुभ में (भी) संलग्न नहीं हूँ अन्य विषयों (निंदा - प्रशंसादि) में मध्यस्थ हूँ और ज्ञानात्मक आत्मा का ध्यान करता हूँ।” आत्मा का ध्यान करनेवाले के भाव इस प्रकार वर्णित हैं: “न मैं पर का होता हूँ, न पर मेरे हैं, मैं
ज्ञानस्वरूप
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प्रवचनसार (खण्ड-2
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