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है। जब व्यक्ति इन्द्रियों को जीतकर आत्मध्यान में लग जाता है तो वह कर्मों से नहीं बाँधा जाता है। उसके फलस्वरूप वह प्राणों से मुक्त हो जाता है। संसारी जीव के नर, नारकी, तिर्यंच और देव पर्यायें कर्मोत्पन्न होती है।
____संसारी जीव की चेतनायुक्त भावात्मकता (उपयोग) दो प्रकार की होती है-शुभ और अशुभ। शुभ भाव से पुण्य का संग्रह होता है और अशुभ भाव पापोत्पादक है। जो जीवों के प्रति करुणा भाव से युक्त है, उसकी भावात्मकता (उपयोग) शुभ है। जो कषायों के वशीभूत जीवों के प्राणों की क्षति करता है, जिसकी भावात्मकता इन्द्रिय विषयों में गाढ़ी है, जो खोटे मनवाला है, जो व्यर्थ चर्चा में संलग्न है, जो सदैव आक्रामक रूखवाला रहता है, जो कुमार्ग पर है, जो कषायोत्तेजक साहित्य में रसयुक्त है उसकी भावात्मकता (उपयोग) अशुभ है। प्रवचनसार के अनुसार पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है
और अशुभ परिणाम पाप है। (89) अतः निस्सन्देह कहा जा सकता है कि समाज में पर की अपेक्षा सर्वोपरि होती है। उसका विकास शुभ परिणामों से ही होता है। ऐसा लगता है आचार्य ने यहाँ समाज को दृष्टि में रखकर पर के प्रति शुभ परिणाम की बात कहकर समाज विकास के सूत्र की ओर ध्यान आकर्षित किया है। संसारी जीव अर्थात् सामाजिक व्यक्ति इन शुभ-अशुभ परिणामों का स्वयं कर्ता है। (84) इनका उत्तरदायित्व उस पर है। जो व्यक्ति सामाजिक निर्माण में ही रसयुक्त है, उसे शुभ परिणाम में संलग्न होना और अशुभ परिणाम से विमुख होना अनिवार्य है। अशुभ परिणामों से समाज का पतन होता है और शुभ परिणामों से समाज विकासोन्मुख होता है। शुभ-परिणाम में आचार्य ने करुणा भाव को प्रमुख स्थान दिया है। (65) जीवों के प्राणों की विभिन्न प्रकार से क्षति को अशुभ परिणाम कहा है। (57) अतः समाज में शुभ परिणामों का शिक्षण महत्वपूर्ण है।
प्रवचनसार (खण्ड-2)
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