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आर्द्रा, पुष्य, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी इन ऊर्ध्वमुख नक्षत्रों में नींव भरना चाहिये । शेष वार व मास पूर्ववत् हैं । इसकी सामग्री में पूर्व सामग्री के सिवाय
सीम्नि प्रखाते प्रथमं शुभेऽह्रि घृतोद्भवं दीपमुपांशुमंत्रैः । संयोज्य ताने कलशे पिधाय, न्यसेत् स यंत्रं कलशं तदू| ॥३०॥
(जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ-३२) एक ताँबे का छोटा लोटा चौड़े मुँह का, जिसमें दीपक प्रज्ज्वलित कर भीतर रखा जा सके और उसके चारों ओर छेद करा दिये जावें, नीचे खड्डे में एक फुट लम्बी-चौड़ी शिला स्थापित कर उस पर स्वस्तिक व वहीं एक विनायक यंत्र, जिसमें मन्दिर की प्रशस्ति (नाम, तिथि, संवत् आदि) खुदवाकर रख देवें । उक्त लोटे में दीपक प्रज्ज्वलित कर उसे स्थापित कर वहीं पारद, सरसों, सुपारी, हल्दी गाँठ आदि मांगलिक द्रव्य क्षेपकर चारों ओर से ईंटें और सीमेन्ट, कन्नी से चुनवा देवें । उस पर एक दूसरी वैसी शिला रख देवें| इस विधि के पहले खात मुहूर्त के माफिक पूजा कर लेवें । पीछे पुण्याहवाचन, शान्तिपाठ, विसर्जन कर लेवें।
नोट : यह शिलान्यास और खात मुहूर्त एक साथ भी हो सकता है। दो-चार घंटे पूर्व सामान्य खात कराकर पीछे शिलान्यास में पूजा आदि पूरी विधि कर देवें । चर लग्न में नींव खोदें और स्थिर लग्न में भरें। शिलान्यास में प्रशस्ति लिखकर एक बड़ा पाषाण कुछ ऊँचाई पर लगाकर बाहर भी किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा अनावरण कराया जाता है । यदि खात मुहूर्त के बहुत समय बाद शिलान्यास करना हो तो सूर्य देखकर शिलान्यास करना होगा, जिसमें खात वाली दिशा में परिवर्तन भी संभव है।
जिनालय निर्माण मुहूर्त जिनालय निर्माण में माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ, मृगसिर, पौष में तिथि २,३,५,७,११,१२,१३ को चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र, रवि में तथा पुनर्वसु, पुष्य, उत्तरात्रय, मृग., श्र., अश्विनी, चित्रा, विशाखा, आर्द्रा, ह., ध., रो., नक्षत्रों में करें । गुरुवार को मृगशिरा, अनुराधा, आश्लेषा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तरात्रय, रोहिणी, पुष्य नक्षत्र तथा शुक्रवार को चित्रा, धनिष्ठा, विशाखा, अश्विनी, आर्द्रा, शतभिषा और बुधवार को अश्विनी, उत्तरात्रय, हस्त, रोहिणी ये नक्षत्र शुभ हैं।
चैत्यालय शब्दकोश एवं आगम के अनुसार मन्दिर और चैत्यालय पर्यायवाची शब्द हैं, परन्तु व्यवहार में जहाँ बड़ी प्रतिमा, शिखर व कलश हो वह मन्दिर माना जाता है और उससे विपरीत जिसका रूप लघु हो वह चैत्यालय कहा जाता है । गृह के भीतर चैत्यालय में ११ अंगुल तक की सर्वधातु प्रतिमा विराजमान की जाती है । ३, ५, ७, ९ और ११ अंगुल की प्रतिमा शुभ मानी जाती है।
एकादशांगुलं बिंबं सर्व कार्यार्थ साधकम् । एतत्प्रमाणमाख्यातमत ऊर्ध्वं न कारयेत् ।।
(प्रतिष्ठा सारोद्धार, पृष्ठ-९) [प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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