Book Title: Pratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 302
________________ आचार्य शान्तिसागरजी, गुरुवर गोपालदासजी एवं पूज्य वर्णी गणेशप्रसादजी को यह श्रेय प्राप्त है कि वर्तमान में हमें अधिक संख्या में मुनिराज और प्रायः सभी विषयों के विद्वान् उपलब्ध हो रहे हैं। अपने सम्मानीय प्रतिष्ठाचार्यों से निवेदन करना चाहता हूँ - अपने पड़ौस से आये हिंसक क्रियाकाण्डों को अहिंसापूर्ण क्रियाओं में परिवर्तित कर आपने साहसिक प्रयासों द्वारा पडौस को अहिंसक बनाया है। अपनी श्रमण संस्कृति के रक्षक का भार ग्रहण कर व्यवहार और निश्चय रत्नत्रय की आराधना के स्थल मन्दिर और मूर्तियों आदि की समृद्धि में अपना योगदान कर रहे हैं, एतदर्थ समस्त जैन समाज आपका कृतज्ञ है। क्योंकि आपके सहयोग से वह मिथ्या मार्ग में भटकने से बच रहा है। आशा है, आप अपने महत्वपूर्ण पद की गरिमा एवं पूज्यता का ख्याल कर अपने संस्कृत भाषा एवं उत्कृष्ट आचार-विचार के साथ उक्त सेवा कार्य करते रहेंगे। क्योंकि हमसे पूर्व कतिपय ऐसे भी प्रतिष्ठाचार्य थे जिन्हें शुद्धोच्चारण तक नहीं आता था. न ही प्रतिष्ठा संबंधी ज्ञान था. पर एरण्डोऽपिदमायते के अनुसार वे तत्कालीन समाज की धर्मांधता का लाभ उठा कर अश्रद्धा के पात्र बने थे। अब तो समाज प्रबुद्ध है । प्रतिष्ठा क्षेत्र में, गृहस्थाचार्य गुरु के न होने से बहुत कम विद्वान् दिखलाई दे रहे हैं। उन्हें विद्यावर्धन शिक्षण-प्रशिक्षण केन्द्र इन्दौर में विधिवत् संस्कृत भाषा व प्रतिष्ठा विधि का शिक्षण-प्रशिक्षण लेकर समाज सेवा करना चाहिये। मूर्तियों में पूज्यता लाने की हमारी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। पहले प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा संबंधी समस्त सामग्री अपने लिए ग्रहण कर लेते थे, समाज में जब असंतोष बढ़ा तो झूला का द्रव्य, सुवर्ण प्याला, शलाका, आभूषण व मेवा-गादी-रजाई आदि बन्द हो गये, परन्तु कहीं-कहीं दहेज के समान माँग एवं बोलियों से आय कराने का प्रलोभन देना अभी भी विद्यमान है, जिसे सीमित करना चाहिये। ध्यान रहे कि अब माता-पिता बनाना शास्त्रोक्त नहीं है। दिगम्बर गुरु से सूरिमन्त्र आदि चार मन्त्र संस्कार अनिवार्य हैं। २३४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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