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की परम्परानुसार जैन मंदिर के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। यहाँ एक जैन मंदिर की नींव व ईंट, रजत-सिक्का तथा दो बिना शिर की मूर्तियाँ मिली हैं, जो पटना संग्रहालय में हैं । दक्षिण भारत- बादामी के पास ऐहोल का मेयूदी नामक मंदिर ईस्वी ६३४ में चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय के राज्यकाल में रविकीर्ति द्वारा निर्मापित हुआ है । ई. ४७२ में राजशाही बंगाल के बहाड़पुर में पंचस्तूप निकाय के दिगम्बर आचार्य गुणनंदि जहाँ विराजमान रहे उस बिहार मंदिर का लेख मिलता है। देवगढ़ (झांसी) में शती आठवीं से बारहवीं तक के मंदिर हैं । देवालय नगर खजुराहो में सुन्दर शिखर युक्त जैन मंदिर हैं । ग्यारसपुर (ग्वालियर) में सातवीं-आठवीं शती के जैन वास्तुकला प्रदर्शक मंदिर हैं, जिनका जीर्णोद्धार किया गया है। दमोह के पास कंडलपर सिद्धक्षेत्र की पहाडी पर २५.३० मंदिर हैं जहाँ विशाल और प्राचीन बडे बाबा का मंदिर है। इसमें पद्मासन अति उन्नत (ऋषभदेवजी या महावीरजी) सातिशय मूर्ति विराजमान हैं। ऊनपावागिर सिद्धक्षेत्र में १२५८ की सुन्दर मूर्तियाँ विराजमान हैं। बड़वानी के समीप बावनगजा-चूलगिरि सिद्धक्षेत्र में ८४ फुट उन्नत खड्गासन, विश्व में सबसे ऊँची प्रतिमा ऋषभदेव की लगभग दो हजार वर्ष प्राचीन है। ईस्वी १०३१ की प्रतिष्ठित प्रतिमाओं से युक्त आबू के जैन मंदिर कला की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं। राजस्थान के राणकपुर में सन् १४३१ का विशाल चतुर्मुखी श्वेताम्बर मंदिर चालीस हजार वर्ग फुट में बना हुआ दर्शनीय है। चित्तौड़ का कीर्ति-स्तम्भ १४८४ ईस्वी का है। गिरनार तीर्थक्षेत्र में सं. ११८५ का नेमिनाथजी मंदिर प्रसिद्ध है। इस प्रकार देश के विभिन्न भागों में भ्रमण करने पर प्राचीन मंदिरों के दर्शन होते हैं।
मंदिरों के शिखर सामान्य रूप में तीन प्रकार के पाये जाते हैं। १. नागर- हिमालय से विन्ध्य तक प्रचलित हैं। इसका गोल आकार होता है।
२. द्रविण- दक्षिण में कृष्णा नदी से कन्याकुमारी तक/स्तंभाकार/ऊपर की ओर क्रमशः सिकुड़ता हुआ। ३. वेसर- गोलाकार ऊपर चपटा-सा रहकर कोठी के आकार समान ।
जैन मूर्तियाँ कलिंग नरेश खारवेल के ईसा पूर्व द्वितीय शती के हाथी गुफा शिलालेख में बताया है कि ईसा पूर्व चौथी- पाँचवीं शती में एक जैन मूर्ति कलिंग नृप नंदराज ने अपहरण कर ली। दो तीन सौ वर्ष पश्चात् खारवेल उसे वापस ले आया। मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से प्राप्त कुषाण मूर्तियाँ मथुरा संग्रहालय में विद्यमान हैं । एक प्राचीन खंडित प्रतिमा मौर्यकाल की अनुमानित लोहानीपुर से प्राप्त हुई थी। सिंधु घाटी की खुदाई में मोहनजोदड़ो व हडप्पा से उपलब्ध सहस्रों वर्ष पूर्व की मूर्तियाँ भारतीय मूर्तिकला के महत्व का दिग्दर्शन कराती हैं | कुषाण कालीन मूर्तियाँ मथुरा संग्रहालय में विद्यमान हैं । ईसा की चौथी शताब्दी से प्रारंभ हुए गुप्तकाल की प्रतिमाएँ भी उक्त स्थान पर विद्यमान हैं। तीर्थंकर मूर्तियों पर चिन्हों का प्रदर्शन ई. ८ वीं शती में प्रचार में आया है। शाह जीवराज पापड़ीवाल द्वारा ईस्वी १४९० में प्रतिष्ठित
[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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